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________________ १६६ योगसार-प्राभृत अध्यात्म ज्ञान की विशिष्ट दृष्टि के बिना इस श्लोक का भाव समझना कठिन है। इस श्लोकगत विषय का मर्म समझने के लिये समयसार गाथा १९५, १९६ तथा १९७ को एवं इन गाथाओं की टीका तथा भावार्थ को भी सूक्ष्मता से पढ़ना आवश्यक है। कौन किससे पूजनीय - द्रव्यतो यो निवृत्तोऽस्ति स पूज्यो व्यवहारिभिः । भावतो यो निवृत्तोऽसौ पूज्यो मोक्षं यियासुभिः ।।२४६॥ अन्वय :- य: द्रव्यत: निवृत्तः सः व्यवहारिभिः पूज्यः अस्ति । यः भावत: निवृत्त: असौ मोक्षं यियासुभिः पूज्यः (अस्ति)। सरलार्थ :- जो द्रव्य से निवृत्त अर्थात् अभोजक हैं वे व्यवहारियों से पूज्य हैं। जो भाव से निवृत्त अर्थात् अभोजक/अभोक्ता हैं, वे मुमुक्षुओं से पूज्य/पूजा को प्राप्त होते हैं। भावार्थ:- जो द्रव्य से बाह्य पदार्थों का त्याग करके उनके भोग से निवृत्त होते हैं, वे व्यवहारी जीवों के द्वारा पूजे जाते हैं; क्योंकि व्यवहारी जीवों की बाह्य दृष्टि होती है, वे दूसरे के अन्तरंग को नहीं परख पाते । वस्तुतः जो भाव से भोगों से विरक्तचित्त होकर निवृत्त होते हैं वे मोक्ष-प्राप्ति की इच्छा रखनेवाले मुमुक्षुओं के द्वारा पूजे जाते हैं; क्योंकि मुमुक्षु अन्तरात्माओं को आन्तरिक दृष्टि होने के कारण वे दूसरे के अन्तरंग को परख लेते हैं। __ इस श्लोक में निवृत्त शब्द आया है, उसका अर्थ अंतरंग-बहिरंगरूप से त्याग है। वह त्याग जिनेन्द्र कथित चरणानुयोग के अनुसार हो, अपनी कल्पना से मात्र दिखावा न हो। आचार्य कुन्दकुन्द ने अष्टपाहुड ग्रन्थ के भावपाहुड गाथा ७१ में मात्र दिखावा करनेवाले को नटश्रमण कहा है। उनका जीवन गन्ने के फूल के समान व्यर्थ बताया है। भावपूर्वक त्याग से संवर - द्रव्यमात्रनिवृत्तस्य नास्ति निर्वृतिरेनसाम् । भावतोऽस्ति निवृत्तस्य तात्त्विकी संवृति: पुनः ।।२४७।। अन्वय :- द्रव्य-मात्र-निवृत्तस्य (जीवस्य) एनसां निवृत्तिः न अस्ति । पुनः भावत: निवृत्तस्य (जीवस्य) तात्विकी संवृतिः अस्ति। सरलार्थ :- जो जीव अन्तरंग परिणाम के बिना मात्र बाहर से ऊपर-ऊपर से भोग्य वस्तु का त्याग करते हैं, उनके कर्मों का संवर नहीं होता और जो जीव अन्तरंग परिणाम से अर्थात् भाव से/ मनःपूर्वक भोग्य वस्तु का त्याग करते हैं; उनके कर्मों का संवर होता है। भावार्थ :- यहाँ पिछले कथन को संवर तत्त्व के साथ सम्बद्ध जोड़ते हुए लिखा है कि जो द्रव्य मात्र से निवृत्त है अर्थात् बाह्य में किसी वस्तु के भोग का बुद्धिपूर्वक त्याग किये हुए हैं; परन्तु अन्तरंग में उसके भोग की वासना/लालसा बनी हुई है, उसके कर्मों का संवर नहीं होता। जो भाव से निवृत्त है अर्थात् हृदय में उस पदार्थ के भोग का कभी विचार तक भी नहीं होता - उसके वास्तविक संवृति [C:/PM65/smarakpm65/annaji/yogsar prabhat.p65/166)
SR No.008391
Book TitleYogasara Prabhrut
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorYashpal Jain
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages319
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size920 KB
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