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योगसार-प्राभृत
अन्यथा कारणं कर्म तस्य केन निवर्तते ।।२५०।। अन्वय :- येन शरीरं आत्मनः भिन्नं तदात्मकं लिङ्गं (च) तेन तत्त्वतः लिङ्ग मुक्ति-कारणं न जायते। ___ मुक्तिं गच्छता यत् (लिङ्गम्) त्याज्यं (अस्ति) तत: मुक्तिः न जायते; अन्यथा तस्य (लिङ्गस्य) कारणं कर्म केन निवर्तते ?
सरलार्थ :- शरीर आत्मा से भिन्न है और लिंग शरीरात्मक है; इसलिए वस्तुतः लिंग मुक्ति का कारण नहीं होता । जो शरीर/लिंग मुक्ति को जानेवालों से त्याज्य हैं, उस शरीर से मुक्ति नहीं होती।
यदि लिंग को मुक्ति का कारण माना जायेगा तो लिंग के लिये कारण होनेवाले नामकर्म को किस साधन से दूर किया जायेगा? अर्थात् किसी से भी नामकर्म का दूर किया जाना नहीं बनता।
भावार्थ :- इन दोनों श्लोकों में युक्तिपुरस्सर यह प्रतिपादित किया गया है कि कोई भी लिंग अथवा वेष वस्तुतः मुक्ति का कारण नहीं है; क्योंकि वह शरीरात्मक है और शरीर आत्मा से भिन्न है। जो शरीर तथा वेष मुक्ति को जानेवाले/प्राप्त होनेवालों के द्वारा त्यागा जाता है, वह मुक्ति का कारण नहीं हो सकता। ___ यदि शरीर अथवा तदाश्रित लिंग को मुक्ति का कारण माना जायेगा तो फिर शरीर का कारण जो नामकर्म है, वह किसी के द्वारा भी दूर नहीं किया जा सकेगा और कर्म के साथ में रहने पर मुक्ति कैसी होगी ? अतः शरीरात्मक द्रव्यलिंग को मुक्ति का कारण मानना तर्कसंगत नहीं - अनुचित है। श्री पूज्यपादाचार्य ने अपने समाधितंत्र के ८७ वें श्लोक में इसी बात की स्पष्ट घोषणा की है :
लिङ्ग देहाश्रितं दृष्टं देह एवात्मनो भवः।
न मुच्यन्ते भवात्तस्मात्ते ये लिङ्गकृताग्रहाः।। श्लोकार्थ :- लिंग (नग्नता इत्यादि) शरीराश्रित है और शरीर आत्मा का भव/संसार है; अतः जो लिंग का आग्रह रखते हैं वे संसार से मुक्त नहीं हो पाते। एक भव से दूसरा भव धारण करते हुए संसार में ही परिभ्रमण करते रहते हैं। जब लिंग आदि का आग्रह छूटता है, तब ही मुक्ति का स्वामित्व प्राप्त होता है। शरीर अचेतन है इसलिए चेतन आत्मा को शरीर का आग्रह नहीं रखना चाहिए।
लिंग सम्बन्धी अत्यन्त संतुलित कथन समयसार गाथा ४०८ से ४१४ पर्यंत है। इन गाथाओं की टीका तथा भावार्थ में भी यही विषय अत्यंत स्पष्टरूप से आया है, उसे जरूर देखें। मुमुक्षु के लिए हेय तथा उपादेय तत्त्व -
अचेतनं ततः सर्वं परित्याज्यं मुमुक्षुणा। चेतनं सर्वदा सेव्यं स्वात्मस्थं संवरार्थिना ।।२५१।।
[C:/PM65/smarakpm65/annaji/yogsar prabhat.p65/168]