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________________ संवर अधिकार १५९ और न छोड़ता है। जो मिथ्याज्ञान से मलिन है, वह अज्ञानी जीव कर्म अर्थात् परद्रव्य को ग्रहण करता है तथा छोड़ता है। __ भावार्थ :- ज्ञानी जीव, वस्तु-स्वरूप को यथार्थ जानता है, अतः वह परद्रव्य के ग्रहणत्याग का विकल्प भी नहीं करता; क्योंकि असंभव विषय का अथवा अनुचित बात का विकल्प अज्ञानी ही करते हैं। प्रश्न :- ज्ञानी परद्रव्य का ग्रहण-त्याग नहीं कर सकता और अज्ञानी जीव करता है; इसका अर्थ ज्ञानी से अज्ञानी जीव अधिक समर्थ हो गया; ऐसा अर्थ प्रतीत होता है। उत्तर :- ऐसा नहीं है; अज्ञानी अज्ञान के कारण “मैं परद्रव्य का ग्रहण-त्याग कर सकता हूँ"; ऐसी मात्र मिथ्या मान्यता रखता है, यह बात यहाँ कही गयी है। ज्ञानी से अज्ञानी समर्थ है, यह बताने का भाव नहीं और वस्तु-स्वरूप भी ऐसा नहीं है। सामायिक आदि में प्रवर्तमान साधु को संवर होता है - सामायिके स्तवे भक्त्या वन्दनायां प्रतिक्रमे। प्रत्याख्याने तनूत्सर्गे वर्तमानस्य संवरः ।।२३६।। अन्वय :- भक्त्या सामायिके, स्तवे, वन्दनायां, प्रतिक्रमे, प्रत्याख्याने, (च) तनूत्सर्गे वर्तमानस्य (साधोः) संवरः (जायते)। सरलार्थ :- जो साधु भक्तिपूर्वक सामायिक, स्तव, वन्दना, प्रतिक्रमण, प्रत्याख्यान और कायोत्सर्ग में प्रवर्तन करते हैं, उनके संवर अर्थात् कर्मास्रव का निरोध होता है। भावार्थ :- सामायिकादि षट्कर्मों का स्वरूप ग्रन्थकार स्वयं ही आगामी श्लोकों में बता रहे हैं। यहाँ मुनिराज के षट्कर्मों में प्रवृत्त होनेरूप जो पुण्य परिणाम है, उससे संवर होता है; ऐसा अर्थ करना उचित नहीं है; क्योंकि पुण्य-परिणाम से तो नियम से आस्रव-बंध ही होते हैं; संवर निर्जरा नहीं। संवर तो वीतराग परिणाम से होता है और षट्कर्मों में मुनिराज की शुभोपयोगरूप प्रवृत्ति तो प्रमत्तविरत गुणस्थान में आनेपर ही होती है। इसलिए इन शुभ परिणामरूप क्रियाओं को करते समय भी तीन कषाय चौकड़ी के अभावपूर्वक शुद्धपरिणतिरूप जो प्रगट वीतरागता है, उससे संवर होता है ऐसा समझना चाहिए। यहाँ इस श्लोक में व्यवहारनय से सामायिकादि षट्कर्मों से संवर होता है; ऐसा कहा है। प्रश्न :- आप अपने मन से ही अर्थ कर रहे हो, ऐसा हम क्यों नहीं मानें? उत्तर :- ऐसा नहीं है। जिनवाणी का असत्य अर्थ करने से होनेवाले पाप से हम बहुत डरते हैं। प्रश्न :- ऐसा है तो सामायिकादि शुभ क्रियाओं से ही संवर मान लो न, वीतराग परिणाम की शर्त मत लगाओ। उत्तर :- शर्त लगाने की यह हमारी मर्जी की बात नहीं है। अगले ही श्लोक में व्यक्त अर्थ से [C:/PM65/smarakpm65/annaji/yogsar prabhat.p65/1591
SR No.008391
Book TitleYogasara Prabhrut
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorYashpal Jain
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages319
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size920 KB
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