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योगसार-प्राभृत
आपको मूल ग्रंथकार के भाव का स्पष्ट पता चल जायेगा।
दूसरा महत्त्वपूर्ण विषय यह भी है कि यदि बाह्य अर्थात् व्यवहार सामायिकादि से ही संवरनिर्जरा मानेंगे तो अभव्य जीव अथवा द्रव्यलिंगी मुनिराजों ने अनन्तबार सामायिकादि षट्कर्मों का आचरण किया, नव ग्रैवेयिक पर्यंत गये; लेकिन उन्हें न संवर-निर्जरा हुए न मोक्ष हुआ। अतः मात्र पुण्यमय षट्कर्मों से संवर नहीं होता है; यह मानना आवश्यक है। सामायिक का स्वरूप -
यत् सर्व-द्रव्य-संदर्भे राग-द्वेष-व्यपोहनम् ।
आत्मतत्त्व-निविष्टस्य तत्सामायिकमुच्यते ।।२३७।। अन्वय :- आत्मतत्त्व-निविष्टस्य (साधोः) सर्व-द्रव्य-संदर्भे यत् राग-द्वेष व्यपोहनं (अस्ति), तत् सामायिकं उच्यते।
सरलार्थ :- निज शुद्धात्मतत्त्व में मग्न/लीन मुनिराज के जीवादि सर्व द्रव्यों के सम्बन्ध में जो राग-द्वेष का परित्याग अर्थात् वीतरागभाव है, उसे सामायिक कहते हैं।
भावार्थ :- सामायिक की परिभाषा में आत्मतत्त्व-निविष्टस्य कहकर यहाँ निजशुद्धात्मतत्त्व में लीनता की बात मुख्यरूप से कही गयी है; क्योंकि उसके बिना राग-द्वेष का परित्याग/वीतरागता शक्य नहीं है। दूसरी बात सर्व द्रव्यों के संबंध में राग-द्वेष का परित्याग बताकर मुनिराज की ओर ही संकेत स्पष्ट होता है; क्योंकि तीन कषाय चौकडी के अभावपूर्वक विशेष वीतरागता मुनिराज के ही जीवन में सम्भव है।
प्रश्न :- इसका अर्थ सामायिक क्या मुनिराज को ही होता है श्रावक को नहीं?
उत्तर :- यहाँ मुनियों के सामायिकादि षट् आवश्यक की बात चल रही है; इसलिए मुनिराज को लेकर सामायिक की चर्चा की है। श्रावक के जीवन में दो कषाय चौकडी के अभावपूर्वक सामायिक शास्त्र में बताया गया है । ग्यारह प्रतिमाओं में सामायिक नाम की तीसरी प्रतिमा भी कही गयी है।
प्रश्न :- जब मुनिराज ध्यान में बैठते हैं, तब ही सामायिक होता है या अन्य आहार-विहारादि कार्यकाल में भी सामायिक होता है?
उत्तर :- ध्यानावस्था में तो सामायिक अर्थात् समताभाव/वीतरागभाव विशेष रूप से उग्र होने से सामायिक घटित होता ही है और आहार-विहारादि शुभ क्रिया के समय में भी विशिष्ट वीतरागतारूप परिणति जीवन में सतत बनी रहती है, इसलिए मुनिराज का जीवन ही सामायिकमय है।
सामायिक पाठ बोलना आदि तो पुण्यपरिणाम तथा पुण्यक्रिया है, वास्तविक सामायिक नहीं। सामायिक का विशेष स्वरूप जानने के लिये समयसार गाथा १५४ की टीका तथा नियमसार गाथा १२५ से १३३ पर्यंत के सर्व प्रकरण को जरूर देखें। स्तव का स्वरूप -
[C:/PM65/smarakpm65/annaji/yogsar prabhat.p65/160]