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योगसार-प्राभृत
अन्वय :- कर्म कुर्वाणः, कर्मणां च फलं भुजानः अयं आत्मा दुःख-सन्तते: कारणं अष्टधा कर्म बध्नाति।
सरलार्थ :- यह अज्ञानी जीव शुभाशुभ परिणामस्वरूप कर्म करता हुआ और पुण्य-पापरूप कर्मों के अनुकूल-प्रतिकूल कर्म-फल को भोगता हुआ दुःख परम्परा का कारण ज्ञानावरणादि आठ प्रकार का नवीन कर्म बांधता है।
भावार्थ :- १. शुभाशुभ परिणाम २. उन परिणामों से पुण्य-पापरूप कर्मबन्धन ३. उन कर्मों के उदय से इष्टानिष्ट संयोग, ४. उन संयोगी पदार्थों के भोग-निमित्त से होनेवाले इष्टानिष्ट परिणाम - इसप्रकार की दुःखदायक परम्परा अज्ञानी के जीवन में चलती ही रहती है। ज्ञानी जीव संयोगी पदार्थों का ज्ञाता-दृष्टा बनकर इस परम्परा को तोड़ता है। यहाँ से पुरुषार्थ अर्थात् धर्म का प्रारम्भ होता है । ज्ञाता-दृष्टा बनना ही पुरुषार्थ और धर्म है। ज्ञाता-दृष्टा रहना मोक्षमार्ग है -
सर्वं पौद्गलिकं वेत्ति कर्मपाकं सदापि यः।
सर्व-कर्म-बहिर्भूतमात्मानं स प्रपद्यते ।।२३४।। अन्वय :- यः (ज्ञानी) सर्वं कर्मपाकं अपि सदा पौद्गलिकं वेत्ति । सः सर्व-कर्म-बहिर्भूतं आत्मानं प्रपद्यते।
सरलार्थ :- जो ज्ञानी जीव, पुण्य-पापरूप संपूर्ण कर्मों के इष्टानिष्ट फल को सदाकाल पुद्गल से उत्पन्न हुआ जानता-मानता है, वह सर्व कर्मों से रहित सिद्ध-समान अपनी (भावी) आत्मअवस्था को (क्रम से) प्राप्त होता है।
भावार्थ :- जो इष्टानिष्ट पुद्गलमय पदार्थ जीव के संयोग में आते हैं, वे तो वेदनीयादि अघाति कर्मों के उदय का कार्य है; अतः उन पदार्थों को तो पौद्गलिक कहते ही हैं। इतना ही नहीं अध्यात्म की मुख्यता से समयसार गाथा ५० से ५५ तक की टीका में तो यहाँ तक कहा है कि - वर्ण से लेकर गुणस्थान पर्यंत के सर्व २९ भाव पुद्गल द्रव्य के परिणाममय होने से जीव के नहीं है; क्योंकि ये सर्व अनुभूति से भिन्न हैं यह वास्तविक दृष्टि जिसे प्राप्त होती है वह ज्ञानी/धर्मात्मा जीव मोक्षमार्गी होता है और क्रम से सिद्ध-अवस्था को प्राप्त करता है। ज्ञानी मात्र ज्ञाता-दृष्टा -
ज्ञानवांश्चेतनः शुद्धो न गृह्णाति न मुञ्चति ।
गृह्णाति मुञ्चते कर्म मिथ्याज्ञान-मलीमसः ।।२३५।। अन्वय :- शुद्धः ज्ञानवान्-चेतनः (कर्म) न गृह्णाति न मुञ्चति। मिथ्याज्ञान-मलीमस: (जीवः एव) कर्म गृह्णाति (च) मुञ्चते।
सरलार्थ :- जो आत्मा शुद्ध ज्ञानवान अर्थात् सम्यग्ज्ञानी है, वह परद्रव्य को न ग्रहण करता है
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