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संवर अधिकार
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आस्रव-बन्ध रुकता है, उसे ही संवर कहते हैं। यदि मात्र मिथ्यात्व का अभाव हुआ तो मिथ्यात्वजन्य आस्रव-बन्ध रुक जाता है और यदि मिथ्यात्व एवं अविरति दोनों का अभाव हो जायेगा तो इन दोनों से होनेवाला आस्रव-बन्ध रुक जाता है । इसतरह आगे भी प्रमाद और कषाय के संबंध में भी लगा लेना/समझना आवश्यक है। मोह के अभाव में साता-असाता वेदनीय कर्म का उदय भी जीव को सुख-दुःख देने में असमर्थ है।
प्रश्न :- मोह के अभाव में असाता वेदनीय का उदय कैसे?
उत्तर :- १२वें १३वें एवं १४वें गुणस्थानों में मोह का न आस्रव है न बंध है न सत्ता है; क्योंकि इन तीनों गुणस्थानवी जीव पूर्ण वीतरागी हो गये हैं। इन वीतरागी महापुरुषों को भी पूर्वबद्ध असाता की सत्ता रहती है और यथायोग्य उदय भी आता रहता है; तथापि मोह न होने से असाता के उदय को शास्त्रों में जली हुई रस्सी के समान कहा है और मोह के अभाव में अपने दुःखरूप फल देने में असमर्थ बताया है। राग-द्वेष सहित तप से शुद्धि नहीं -
शुभाशुभ - पर - द्रव्य - राग द्वेष - वि ध । यि न : ।
नजातु जायते शुद्धिः कुर्वतोऽपिचिरंतपः ।।२३२।। अन्वय :- शुभ-अशुभ-पर-द्रव्य-राग-द्वेष-विधायिनः चिरं तपः कुर्वतः अपि शुद्धिः जातु न जायते।
सरलार्थ:-शभ-अशभरूप अर्थात अनकल-प्रतिकललगनेवाले परद्रव्य को सख-द:खदाता मानकर राग-द्वेष करनेवाले जीव के चिरकाल पर्यंत बाह्य तपश्चरण करने पर भी उसे कभी शुद्धि अर्थात् वीतरागता/सच्चा धर्म प्रगट नहीं होता।
भावार्थ :- विपरीत मान्यता अर्थात् मिथ्यात्व के साथ आप चाहे जितना सदाचार पालें अथवा जिनेन्द्रकथित व्यवहारधर्म का भी निरतिचार आचरण करें तो भी उससे शुद्धि प्रगट नहीं होती । वस्तु-व्यवस्था में कोई भी द्रव्य शुभाशुभ है ही नहीं, कोई किसी को सुख-दुःखदाता भी नहीं है तो भी अज्ञानी अपनी मिथ्याबुद्धि से कुछ ना कुछ अन्यथा जानता-मानता रहता है और उससे धर्म मानता है। ऐसे अज्ञानी को कुछ काल पर्यंत स्वर्गादि स्थान मिल सकता है; परन्तु मान्यता बदले बिना धर्म समझ में भी नहीं आयेगा, जीवन में धर्म प्रगट होने की बात तो बहुत दूर की है। कर्म का कर्ता-भोक्ता जीव, कर्मों को बाँधता है -
कुर्वाण: कर्म चात्मायं भुञ्जानः कर्मणां फ
ल म अष्टधा कर्म बध्नाति कारणं दुःखसन्ततेः ।।२३३।।
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