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संवर अधिकार
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समयसार गाथा ३ की टीका में भी इस विषय पर प्रकाश डाला है, अतः उसे भी अवश्य देखें । इससे एक जीव द्रव्य के गुण-दोष अन्य जीव द्रव्य में प्रवेश नहीं करते, यह भी समझना चाहिए । गुण का अर्थ जीव के ज्ञानादि और पुद्गल के स्पर्शादि गुण लेना चाहिए। दोष का अर्थ जीव तथा पुद्गलद्रव्य के विभाव परिणामों को लेना अनुकूल प्रतीत होता है । इष्टानिष्ट चिन्तन की निरर्थकता
अयं मेऽनिष्टमिष्टं वा ध्यायतीति वृथा मति: ।
पीड्यते पाल्यते वापि न परः परचिन्तया । । २२४ ।।
अन्वय :- अयं मे इष्टं वा अनिष्टं वा ध्यायति इति मति: वृथा ( वर्तते; यतः) परचिन्तया परः न पीड्यते न वा अपि पाल्यते ।
सरलार्थ :- यह मेरे अहित का चिन्तन करता है और यह मेरे हित का चिन्तन करता है, इसप्रकार का विचार निरर्थक है; क्योंकि एक के चिन्तन से किसी दूसरे का पीडित होना अथवा रक्षित होना बनता ही नहीं ।
भावार्थ :- एक जीव की इच्छा / अपेक्षा के अनुसार दूसरे जीव का अच्छा-बुरा अथवा हिताहित होने का संसार में नियम बन जाय तो वस्तु-व्यवस्था ही नहीं रहेगी। एक ही व्यक्ति का कुछ लोग हित चाहते हैं और उसी समय अनेक लोग उसका ही अहित भी चाहते हैं - ऐसी परिस्थिति में आखिर निर्णय किसप्रकार होगा अर्थात् किसके आधार से होगा ?
दूसरा, प्रत्येक जीव का किया हुआ पुण्य-पाप कर्म भी व्यर्थ सिद्ध होने का प्रसंग प्राप्त होगा ।
शास्त्र में जीव का अच्छा-बुरा उसके परिणाम अथवा पूर्वबद्ध कर्मानुसार होता है; यह कथन भी मिथ्या होने की आपत्ति आ जायेगी । इसलिए एक के हिताहित चिन्तन से दूसरे का हिताहित होने की बात सर्वथा मिथ्या ही मानना युक्तिसंगत एवं शास्त्रसम्मत भी है ।
विकल्पों की निरर्थकता
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अन्योऽन्यस्य विकल्पेन वर्ज्यते हाप्यते यदि ।
न सम्पत्तिर्विपत्तिर्वा तदा कस्यापि हीयते ।। २२५ ।।
अन्वय :- यदि अन्यस्य विकल्पेन अन्य: वर्क्यते हाप्यते; वा तदा कस्यापि सम्पत्ति: विपत्तिः वा न हीयते ।
सरलार्थ : - यदि एक जीव के विकल्पानुसार दूसरा जीव हानि-अथवा वृद्धि को प्राप्त होता है, ऐसा मान लिया जाय तो किसी भी जीव की सम्पत्ति अथवा विपत्ति कभी क्षीण नहीं होगी । भावार्थ :यदि पिछले श्लोक में निरूपित सिद्धान्त के विरुद्ध यह माना जाय कि पर की चिन्ता से कोई पीड़ित या पालित अथवा वृद्धि-हानि को प्राप्त होता है तो संसार में किसी की भी सम्पत्ति तथा विपत्ति कभी कम नहीं होनी चाहिए; क्योंकि दोनों की वृद्धि-हानि के चिन्तक सज्जन
[C:/PM65/smarakpm65 / annaji/yogsar prabhat.p65/153]