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योगसार-प्राभृत
दुर्जन बराबर पाये जाते हैं। प्रत्युत एक के अनिष्ट चिन्तन पर भी दूसरा वृद्धि को और किसी के इष्ट चिन्तन पर भी/रातदिन उसके हित की माला जपने पर भी वह हानि को प्राप्त हुआ देखने में आता है, अतः उक्त मान्यता प्रत्यक्ष के भी विरुद्ध है। कोई भी द्रव्य इष्ट-अनिष्ट नहीं -
इष्टोऽपि मोहतोऽनिष्टो भावोऽनिष्टस्तथा परः।
न द्रव्यं तत्त्वत: किंचिदिष्टानिष्टं हि विद्यते ।।२२६॥ ___ अन्वय :- मोहत: इष्टः भावः अपि अनिष्टः तथा अनिष्टः परः (इष्ट:) मन्यते । तत्त्वतः किंचित् (अपि) द्रव्यं इष्ट-अनिष्टं न हि विद्यते ।
सरलार्थ :- मोह के कारण अज्ञानी जीव जिस वस्तु को पहले इष्ट मानता था, कुछ काल व्यतीत हो जाने पर उसी वस्तु को अनिष्ट मानने लगता है और जिस वस्तु को पहले अनिष्ट मानता था, उसी वस्तु को इष्ट मानने लगता है। अज्ञानी की इस प्रवृत्ति के कारण यह वास्तविक बात स्पष्ट हो जाती है कि संसार में कोई भी वस्तु इष्ट या अनिष्ट नहीं है।
भावार्थ:- वस्तु सम्बन्धी इष्टानिष्टपने की यह भावना मात्र शास्त्रों में ही बताई जाती है. ऐसा नहीं। हम लौकिक जीवन में भी इस प्रवृत्ति का अनुभव करते हैं। जैसे - पुत्र के जन्म से माता-पिता को विशेष हर्ष होता है । वे पुत्र को अपने प्राणों के समान इष्ट मानते हैं । वही पुत्र जब बड़ा होकर प्रतिकूल हो जाता है तब वह अनिष्ट लगने लगता है। इसतरह के हजारों उदाहरण देखे जा सकते हैं। इससे यही तत्त्व स्पष्ट होता है कि इस दुनिया में कोई वस्तु न इष्ट है न अनिष्ट । इष्टानिष्ट की यह मान्यता मात्र मोह से उत्पन्न होती है।
इस विषय की विशेष जानकारी हेतु मोक्षमार्गप्रकाशक के चौथे अधिकार का इष्ट-अनिष्ट की मिथ्या कल्पना' वाला प्रकरण अवश्य देखें। सम्यक् श्रद्धानादि में जीव स्वयं प्रवृत्त होता है -
रत्नत्रये स्वयं जीव: पावने परिवर्तते ।
निसर्गनिर्मलः शङ्खः शुक्लत्वे केन वर्त्यते ।।२२७।। अन्वय :- (यथा) निसर्ग-निर्मलः शङ्खः शुक्लत्वे केन वय॑ते ? (अन्येन न वय॑ते तथा) जीवः पावने रत्नत्रये (अपि) स्वयं परिवर्तते ।
सरलार्थ :- जैसे स्वभाव से निर्मल शंख स्वयं अपने स्वभाव से ही शुक्लता में परिवर्तित होता है, अन्य किसी से नहीं; वैसे जीव पवित्र रत्नत्रय की आराधना में स्वयं प्रवृत्त होता है; अन्य किसी से नहीं।
भावार्थ :- यहाँ जिस पावन/पवित्र रत्नत्रय में जीव के स्वतः प्रवर्तन की बात कही गयी है, वह निर्मल सम्यक्दर्शन, ज्ञान, चारित्ररूप जीव का स्वभाव है। स्वभाव में प्रवर्तन के लिये किसी दूसरे की आवश्यकता/अपेक्षा नहीं होती।
[C:/PM65/smarakpm65/annaji/yogsar prabhat.p65/154]