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योगसार-प्राभृत अन्वय :- अञ्जसा वचसा कः अपि (जीव:) न निन्द्यते वा (न) स्तूयते अपि; अहं निन्दितः अहं वा स्तुतः (इति) मोहयोगत: मन्यते ।
रलार्थ ·- वास्तविक देखा जाय तो वचनों से कोई निंद्य अथवा स्तुत्य नहीं होता। मोह अर्थात् मिथ्यादर्शन के कारण ‘अज्ञानी मेरी निन्दा हो गयी अथवा मैं स्तुत्य बन गया' ऐसा व्यर्थ ही मान लेता है।
भावार्थ :- विपरीत मान्यता को ही मिथ्यादर्शन कहते हैं। अज्ञानी वस्तु-स्वरूप को तो जानता-मानता नहीं है, इसलिए मनमानी करता है। अनादिकाल से जीव किसी न किसी शरीर के साथ ही रहता आया है। मनुष्यादि अवस्था तो असमानजातीय द्रव्य-पर्याय है अर्थात् अनंत पुद्गल परमाणु और एक जीव - इन सबका एक पिण्ड है, उसे मनुष्य मानता है।
लौकिक जीवन में प्रसंगवश कोई सज्जन अच्छे वचनों से अपने साथ मधुर सम्बन्ध रखता है, यह जानकर अज्ञानी जीव मेरी स्तुति हो गयी ऐसा भ्रमवश मानता है। कभी-कभी दुर्जन पुरुष निंदनीय वचनों का प्रयोग करता है, इस कारण मेरी निंदा हो गयी. मेरा अपमान हो गया. ऐसा समझता है।
ये दोनों विषय झूठे हैं; क्योंकि वचनों का मुझ आत्मा के साथ कुछ सम्बन्ध ही नहीं है। इन दोनों के बीच में अत्यंताभाव की वज्र की दीवाल है; तो फिर मैं चेतन अनादि-अनन्त आत्मा हूँ और वचन-पुद्गल द्रव्य की पर्याय है; मेरा उनसे सम्बन्ध कैसा? परद्रव्य के गुण-दोषों से जीव को हर्ष-विषाद नहीं -
नानन्दो वा विषादो वा परे संक्रान्त्यभावतः।
परदोष-गुणैनूनं कदाचित् न विधीयते ।।२२३।। अन्वय :- पर-दोष-गुणैः परे संक्रांन्त्यभावतः आनन्दः वा विषादः वा कदाचित् नूनं न विधीयते।
सरलार्थ :- पुद्गलादि अन्य द्रव्य के गुण-दोषों से जीव को हर्ष-विषाद अर्थात् सुख-दुःख नहीं होते; क्योंकि किसी भी परद्रव्य के गुण अथवा दोषों का जीव द्रव्य में संक्रमण अर्थात् प्रवेश ही नहीं होता।
भावार्थ :- किसी भी परद्रव्य के गुण अथवा दोषों का जीव द्रव्य में प्रवेश ही नहीं होता; इस आगम के महत्वपूर्ण विषय को समझने के लिये समयसार गाथा १०३ जो इसप्रकार है -
जो जम्हि गुणे दव्वे सो अण्णम्हि दुण संकमदि दव्वे |
सो अण्णमसंकतो कह तं परिणामए दव्वं ।। गाथार्थ - जो वस्तु जिस द्रव्य में और गण में वर्तती है, वह अन्य द्रव्य में तथा गण में संक्रमण को प्राप्त नहीं होती (बदलकर अन्य में नहीं मिल जाती); अन्यरूप से संक्रमण को प्राप्त न होती हुई वह अन्य वस्तु को कैसे परिणमन करा सकती है ?
[C:/PM65/smarakpm65/annaji/yogsar prabhat.p65/152]