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समयसार गाथा ३७३ • ३७५ एवं इनकी टीका में जो विषय आया है, उसे ग्रंथकार ने यहाँ मात्र एक ही श्लोक में अत्यन्त कुशलतापूर्वक स्पष्ट किया है। विषय को अधिक जानने की भावना व पाठक पूर्वोक्त गाथाओं को टीका तथा हिंदी भावार्थ सहित जरूर देखें।
मोह से बाह्य पदार्थ सुख-दुःखदाता
संवर अधिकार
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आत्मन: सकलं बाह्यं शर्माशर्मविधायकम् ।
क्रियते मोहदोषेणापरथा न कदाचन ।। २२१ ।।
अन्वय :- मोह-दोषेण सकलं बाह्यं आत्मन: शर्म- अशर्म-विधायकं क्रियते । अपरथा कदाचन न ( क्रियते) ।
सरलार्थ :- मोहरूपी दोष के कारण ही संपूर्ण बाह्य पदार्थ जीव को सुख-दुःख देने में निमित्त बनते हैं अन्यथा मोहरूपी दोष न हो तो कोई भी बाह्य पदार्थ किसी भी जीव को किंचित् मात्र भी सुख-दुःख देने में निमित्त नहीं होते। इसका अर्थ मोह ही सुख-दुःखदाता है ।
भावार्थ :- चौथे अविरत सम्यक्त्व गुणस्थान से लेकर सूक्ष्मसांपराय नामक दसवें गुणस्थान पर्यंत राग-द्वेष घटते जाते हैं; इस कारण ही ऊपर-ऊपर के गुणस्थानवर्ती जीव अधिक-अधिक सुखी होते जाते हैं । ग्यारहवें तथा बारहवें गुणस्थानवर्ती जीव मोह-परिणाम से सर्वथा रहित हो जाते हैं; अतः पूर्ण सुखी बन जाते हैं। मोह ही दुःखदाता है। जब मोह रहता है तब बाह्य पदार्थ पर सुखदुःख में निमित्तपने का आरोप आ जाता है ।
प्रश्न :- मोह दुःख में निमित्त है, यह बात तो ठीक; परंतु मोह को सुख में निमित्त क्यों कहते हो?
उत्तर :
- सुख अर्थात् इन्द्रियजन्य सुख, जो वास्तविक दुःख ही है; तथापि विशिष्ट इच्छा का शमन होने के कारण उपचार / व्यवहार से मोह को सुख में निमित्त कहा है। मोह तो स्वयमेव दुःखरूप और दुःख में ही निमित्त है; वह न सुखरूप है और न सुख में निमित्त है; क्योंकि मोह स्वयं विकार है और विकार में निमित्त है ।
मोह के २८ भेद हैं, जिनका विवरण इसप्रकार है - मोह के मुख्य दो भेद हैं, दर्शनमोह और चारित्रमोह । दर्शन मोह के तीन भेद १. मिथ्यात्व. २. सम्यग्मिथ्यात्व / मिश्र ३. सम्यक्प्रकृति चारित्रमोह के २५ भेद - अनंतानुबंधी - क्रोध, मान, माया, लोभ, अप्रत्याख्यानावरण क्रोध, मान, माया, लोभ, प्रत्याख्यानावरण क्रोध, मान, माया, लोभ, संज्वलन क्रोध, मान, माया, लोभ । नोकषाय नौ हैं - हास्य, रति, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा, स्त्रीवेद, पुरुषवेद और नपुंसकवेद । वचनों से कोई निंद्य अथवा स्तुत्य नहीं होता
नाञ्जसा वचसा कोऽपि निन्द्यते स्तूयते ऽपि वा । निन्दितोऽहं स्तुतोऽहं वा मन्यते मोहयोगतः । । २२२ ।।
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[C:/PM65/smarakpm65/annaji/yogsar prabhat.p65/151]