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योगसार-प्राभृत
अयं अमूर्तः (आत्मा) कथं सुखं दुःखं नेतुं शक्यः? यतः तत्र (मूर्तामूर्तेषु) सम्बन्ध-अभावत: मूढ़-मानसैः (पुद्गलेषु) राग-द्वेषौ क्रियेते।
सरलार्थ :- सचेतन मूर्तिक पुद्गल अर्थात् पुत्र-कलत्रादि शरीर के संबंधी और अचेतन मूर्तिक पुद्गल अर्थात् अन्न, वस्त्र, दुकान-मकान आदि जड़ पदार्थों के मनोज्ञ तथा अमनोज्ञ स्पर्श, रस, गन्ध, वर्ण और शब्दों से अमूर्तिक आत्मा सुख-दुःख को कैसे प्राप्त कर सकता है? क्योंकि मूर्तिक-अमर्तिक में परस्पर सम्बन्ध का अभाव है। ऐसा वस्त-स्वरूप होने पर भी मढबद्धिजीव मूर्त पुद्गलों में राग-द्वेष करते हैं।
भावार्थ :- यहाँ १९८ वें श्लोक में जिस सम्बन्ध के अभाव का उल्लेख है वह तादात्म्य सम्बन्ध है, जिसे एकका दूसरे से मिलकर तद्रप हो जाना कहते है। अमूर्तिक आत्मा के साथ मूर्तिक पुद्गलों का यह सम्बन्ध कभी नहीं बनता । तादात्म्य संबंध दो द्रव्यों में नहीं होता। ___ ऐसी स्थिति में जिन पुद्गलों का आत्मा में अभाव ही है, वे पुद्गल जीव को सुख कैसे दे सकते हैं? अर्थात् सुख दे नहीं सकते और आत्मा उनसे सुख प्राप्त कर नहीं सकता। जैसे रेत में तेल नहीं है तो रेत से तेल कैसे निकाला जा सकता है? नहीं निकाला जा सकता।
आत्मा स्वयमेव सुखस्वभावी है। आत्मा अपने में से ही सुख प्राप्त कर सकता है, यह यथार्थ वस्तुस्वरूप है। आचार्य अमृतचंद्र ने समयसार गाथा ७४ की टीका में आत्मा को सुखस्वभावी कहा है। राग-द्वेष न करने की सहेतुक प्रेरणा -
निग्रहानुग्रहौ कर्तुं कोऽपि शक्तोऽस्ति नात्मनः।
रोष-तोषौ न कुत्रापि कर्तव्याविति तात्त्विकैः ।।२००। अन्वय :- आत्मनः निग्रह-अनुग्रहौ कर्तुं कः अपि शक्त: न अस्ति इति तात्त्विकैः कुत्रापि रोष-तोषौ न कर्तव्यो।
सरलार्थ :- विश्व में जीवादि अनन्तानन्त द्रव्य हैं, उनमें से कोई भी द्रव्य किसी भी जीव का अच्छा अथवा बुरा करने में समर्थ नहीं है; इसलिए इस वास्तविक तत्त्व के जाननेवाले को जीवादि किसी भी परद्रव्य में राग अथवा द्वेष नहीं करना चाहिए। __ भावार्थ :- कोई भी पुद्गल, परजीव अथवा परद्रव्य (सम्बन्धाभाव के कारण) आत्मा का उपकार या अपकार करने में समर्थ नहीं हैं, इसलिए जो तत्त्वज्ञानी हैं, वे व्यवहार में उपकार या अपकार के होने पर किसी भी परद्रव्य में राग-द्वेष नहीं करते । राग-द्वेष के न करने से उनके आत्मा में कर्मों का आना रुकेगा; संवर होगा और इस तरह आत्मा की शुद्धि होगी।।
सर्वज्ञ भगवान के उपदेशानुसार वस्तुगत स्वाभाविक स्वरूप से विश्व में स्थित प्रत्येक द्रव्य अन्य द्रव्यों से सर्वथा भिन्न ही है। वस्तु-स्वभाव की और गहराई में जाने पर तो प्रत्येक द्रव्य में जो
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