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संवर अधिकार
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सरलार्थ :- जो साधु कषायहीन अर्थात् कथंचित् वीतरागी हुए हैं, आरम्भ-परिग्रह से रहित हैं, स्व-परद्रव्य के विवेक को लिये हुए अर्थात् भेदज्ञानी हैं, पुण्य-पापरूप धर्म-अधर्म की आकांक्षा नहीं रखते एवं लोकाचार के विषय में निरुत्सुक अर्थात् उदासीन हैं; इतना ही नहीं जो विशुद्ध दर्शन ज्ञान-चारित्रमय निज निर्मल/शुद्ध आत्मा को आत्मा के द्वारा ध्याते हैं, वे साधु कषाय को नष्ट करते हैं।
भावार्थ :- इस श्लोक में एकवचन का प्रयोग होने पर भी सरलार्थ में आदरार्थक बहुवचन का प्रयोग किया है कौन साधु कषाय का पूर्ण नाश करने में समर्थ होते हैं? यह एक प्रश्न है, इसके उत्तर में इन दोनों श्लोकों का अवतार हुआ जान पड़ता है।
१९६ वें श्लोक में तो प्रमत्तविरतरूप सामान्य मुनि जीवन/अवस्था का कथन किया है। चरणानुयोग सापेक्ष मुनिराज का जीवन तो तीन कषाय चौकड़ी के अभावपूर्वक शुद्धपरिणति सहित शुभोपयोगरूप रहता है। किन्तु वह शुद्धपरिणति कषाय के क्षपणा में उतनी समर्थ नहीं है; जिससे कषाय का पूर्ण क्षय हो जाय। ___कषाय के पूर्ण क्षय के लिये तो श्रेणिगत शुद्धोपयोग ही आवश्यक रहता है। इस बढ़ते हुए शुद्धोपयोगरूप परिणाम से ही कषायों का क्षय होता है, जिसका वर्णन सातवें श्लोक में आया है। क्षपक श्रेणी के अपूर्वकरण गुणस्थान में तो कषायों का विशेषरूप से क्षय प्रारम्भ होता है। नौवें गुणस्थान में चारित्रमोहनीय की २० प्रकृतियों का क्षय हो जाता है। दसवें के अन्तिम समय में शेष सूक्ष्म लोभ का भी नाश होकर मुनिराज बारहवें गुणस्थान के प्रथम समय में क्षीणमोही अर्थात् पूर्ण वीतरागी हो जाते हैं।
कषाय के अभाव का वास्तविक प्रारम्भ तो चौथे गुणस्थान में अनंतानुबंधी के विसंयोजनापूर्वक ही होता है और अगले गुणस्थानों में भूमिका के अनुसार बढ़ता रहता है।
प्रथम कषाय चौकडी और मिथ्यात्व का भी अभाव निज शुद्धात्मा के ध्यान से ही होता है। पूर्ण कषायों का अभाव भी निजशुद्धात्मा के ध्यान से ही होता है, दूसरा कोई उपाय नहीं है।
यहाँ छठवें श्लोक में प्रयुक्त धर्म-अधर्म शब्द पुण्य-पाप के वाचक हैं और लोकाचार शब्द लौकिकजनोचित प्रवृत्तियों का द्योतक है। मूर्त पुद्गलों में राग-द्वेष करना मूढबुद्धि -
वर्ण-गन्ध-रस-स्पर्श-शब्द-युक्तैः शुभाशुभैः। चेतनाचेतनैर्मूर्तरमूर्तः पुद्गलैरयम् ।।१९८।। शक्यो नेतुं सुख-दुखं सम्बन्धाभावत: कथम् ।
रागद्वेषौ यतस्तत्र क्रियेते मढमानसैः॥१९९।। अन्वय :- शुभ-अशुभैः वर्ण-गन्ध-रस-स्पर्श-शब्द-युक्तैः चेतन-अचेतनैः मूर्तेः पुद्गलैः
[C:/PM65/smarakpm65/annaji/yogsar prabhat.p65/139]