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संवर अधिकार
१४१ अनन्तानन्त गुण हैं, वे गुण भी एक-दूसरे से कथंचित् भिन्न हैं; क्योंकि प्रत्येक गुण का लक्षण भिन्नभिन्न है। इतना ही नहीं, प्रत्येक गुण में उत्पन्न होनेवाली जो अनन्तानन्त पर्यायें हैं, वे पर्यायें भी आपस में एक-दूसरे से कथंचित् भिन्न हैं; क्योंकि प्रत्येक पर्याय अपने-अपने काल में अपने-अपने कारण से उत्पन्न होती है । वस्तु-व्यवस्था की इस सूक्ष्म जानकारी के लिए प्रवचनसार शास्त्र के दूसरे ज्ञेयाधिकार के अध्ययन की आवश्यकता है। इस अध्याय में भी मुख्यता से ९९ से १०१ इन तीन गाथाओं को टीका और भावार्थ के साथ अवश्य देखें। पण्डित टोडरमल स्मारक टस्ट से प्रकाशित ‘पदार्थ-विज्ञान' पुस्तक का अध्ययन भी उपयोगी रहेगा। राग-द्वेष किस पर करें?
परस्याचेतनं गात्रं दृश्यते न तु चेतनः।
उपकारेऽपकारे क्व रज्यते क्व विरज्यते ।।२०१।। अन्वय :- परस्य अचेतनं गात्रं (तु) दृश्यते; चेतन: तु न (दृश्यते) । (ततः) उपकारेअपकारे (सति) क्व रज्यते (च) क्व विरज्यते ?
सरलार्थ :- (उपकार-अपकार न करनेवाला) दूसरे का जड-शरीर तो दिखाई देता है और (उपकार अथवा अपकार करनेवाला) चेतन आत्मा तो दिखाई नहीं देता। इसलिए किसी से भी उपकार अथवा अपकार होने पर किस पर राग किया जाय और किस पर द्वेष? अर्थात् समताभाव स्वीकार करना ही योग्य है।
भावार्थ :- पर का चेतन आत्मा जो दिखाई नहीं देता, वह तो राग-द्वेष का पात्र नहीं है। जो शरीर दिखाई देता है, वह तुम्हारे राग-द्वेष को कुछ समझता नहीं, अतः व्यवहार में उपकार-अपकार के बनने पर किसी पर भी राग-द्वेष करना व्यर्थ है, वीतराग भाव ही सुखदायक है; अतः उसका स्वीकार करना चाहिए । ज्ञानी जीव यही काम करते हैं। शरीर का उपकार और अपकार करनेवालों पर राग-द्वेष कैसे?
शत्रवः पितरौ दाराः स्वजना भ्रातरोऽङ्गजाः। निगृह्णन्त्यनुगृह्णन्ति शरीरं चेतनं न मे ।।२०२।। मत्तश्च तत्त्वतो भिन्नं चेतनात्तदचेतनम् ।
द्वेषरागौ ततः कर्तुं युक्तौ तेषु कथं मम ।।२०३।। अन्वय :- मत्तः चेतनात् तत् अचेतनं शरीरं तत्त्वतः भिन्नं (अस्ति)। पितरौ दाराः स्वजनाः भ्रातराः (च) अङ्गजाः शरीरं अनुगृह्णन्ति (च) शत्रवः निगृह्णन्ति, मे चेतनं न; ततः तेषु (स्वजनेषुशत्रुषु च) मम द्वेषरागौ कर्तुं कथं युक्तौ ?
सरलार्थ :- मुझ चेतन आत्मा से जो यह अचेतन शरीर वास्तविक भिन्न है, उस शरीर पर ही ये माता-पिता, स्त्री, भाई, पुत्र, स्वजन उपकार करते हैं और शत्रु अपकार करते हैं; इस कारण
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