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संवर-अधिकार
संवर का लक्षण और उसके भेद -
कल्मषागमनद्वार-निरोधः संवरो मतः ।
भाव-द्रव्यविभेदेन द्विविधः कृतसंवरैः ।।१९१।। अन्वय :- कृतसंवरैः (अरहंतादिभिः) कल्मष-आगमन-द्वार-निरोधः संवरः भाव-द्रव्यविभेदेन द्विविध: मतः।
सरलार्थ :- अपने जीवन में संवर व्यक्त करनेवाले अरहन्तों ने मिथ्यात्वरूप पाप के आगमन के निरोध/रोकने को संवर कहा है । संवर के दो भेद हैं - १. भावसंवर २. द्रव्यसंवर।
भावार्थ :- संवराधिकार का प्रारम्भ करते हुए यहाँ सबसे पहले संवर तत्त्व का लक्षण दिया है और फिर उसके द्रव्यसंवर तथा भावसंवर ऐसे दो भेद किये गये हैं। कल्मषों के आगमन-द्वार का निरोध' यह संवर का लक्षण है। इसमें कल्मष' शब्द मिथ्यात्व-कषायादि सारे मोह कर्म-मलों का वाचक है और ‘आगमनद्वार' शब्द आत्मा में कर्म-मलों के प्रवेश के लिये हेतुभूत जो मन-वचनकाय योगों का व्यापाररूप आस्रव है उसका द्योतक है। इसीसे मोक्षशास्त्र में सत्ररूप से आस्रवनिरोधः संवरः इतना ही संवर का संक्षिप्त तथापि महत्त्वपूर्ण लक्षण दिया है; आगमाभ्यासी जिससे परिचित हैं।
समयसार गाथा १८६, उसकी टीका एवं भावार्थ में संवर के उत्पत्ति का उपाय शुद्धात्मा को जानना अर्थात् अनुभवना ही बताया है। समयसार कलश १२९ में तो संवर के इस उपाय को ही अत्यंत विशदरूप से परिभाषित किया है; उसे आचार्य अमृतचंद्र के शब्दों में ही देखिए -
संपद्यते संवर एष साक्षात्।
शुद्धात्मतत्त्वस्य किलोपलम्भात्॥ श्लोकार्थ :- यह साक्षात् संवर वास्तव में शुद्ध आत्मतत्त्व की उपलब्धि से होता है।
अतः संवर प्रगट करने का एकमात्र उपाय शुद्धात्मतत्त्व की प्राप्ति करना ही है, अन्य कुछ उपाय नहीं। संवर के भेदों का लक्षण -
रोधस्तत्र कषायाणां कथ्यते भावसंवरः। दुरितास्रवविच्छेदस्तद्रोधे द्रव्यसंवरः ।।१९२।।
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