________________
संवर अधिकार
१३७
अन्वय :- तत्र कषायाणां रोध: भावसंवरः कथ्यते । तद्रोधे दुरित-आस्रव-विच्छेदः द्रव्यसंवरः (कथ्यते)। ___ सरलार्थ :- मिथ्यात्वादि कषाय परिणामों के निरोध को भावसंवर कहते हैं और मिथ्यात्वादि कषायों के निरोध होने पर ज्ञानावरणादि कर्मों का जो आस्रव अर्थात् आगमन का विच्छेद होता है, उसे द्रव्यसंवर कहते हैं।
भावार्थ :- पिछले श्लोक में संवर के जिन दो भेदों का नामोल्लेख किया गया है, इस श्लोक में उनका ही स्वरूप दिया गया है। मिथ्यात्व क्रोधादिरूप कषायों के निरोध को भावसंवर' बतलाया है और कषायों का निरोध (भावसंवर) होनेपर जो पौद्गलिक कर्मों का आत्म-प्रवेशरूप आस्रव रुकता है, उसे 'द्रव्यसंवर' घोषित किया है।
सम्यक्त्व प्राप्त होते ही मिथ्यात्व व अनन्तानुबंधी के अभाव के कारण संवर प्रगट होता है। यह संवरतत्त्व सर्व प्रथम चौथे गुणस्थान में प्रगट होता है। भाव एवं द्रव्यकर्म के अभाव से पूर्ण शुद्धि -
कषायेभ्यो यतः कर्म कषायाः सन्ति कर्मतः।
ततो द्वितयविच्छेदे शुद्धिः संपद्यते परा ।।१९३।। अन्वय :- यतः कषायेभ्यः कर्म, कर्मतः कषायाः सन्ति । ततः द्वितयविच्छेदे (सति) परा शुद्धिः संपद्यते।
सरलार्थ :- कषायादि विकारी भावों के निमित्त से द्रव्यकर्म का बन्ध और मोहनीयादि द्रव्यकर्म के उदय/निमित्त से कषायादि भावकर्म उत्पन्न होते हैं। इसलिए भाव तथा द्रव्यकर्मों के विच्छेद अर्थात् विनाश होने पर आत्मा में परम विशुद्धि/पूर्ण वीतरागता प्रगट होती है।
भावार्थ :- आत्मा में परम शुद्धि के विधान की व्यवस्था बताते हुए उसके विरोधी दो कारणों को नष्ट करने की बात कही गयी है - एक कषाय भावों की और दसरी-द्रव्यकर्मों की: क्योंकि एक के निमित्त से दूसरे का उत्पाद होता है। जब दोनों ही नहीं रहेंगे, तभी आत्मा में पूर्ण शुद्धि बन सकेगी।
सर्वोत्तम शुद्धि तो आत्मा में आत्मा से ही होगी; यह बात परम सत्य होनेपर भी उस सर्वोत्तम शुद्धि के/वीतरागता के प्रगट होने में विभाव भाव एवं द्रव्यकर्मों का अभाव भी होता ही है। मोह से आत्मबोध का नाश -
कषायाकुलितो जीवः परद्रव्ये प्रवर्तते ।
परद्रव्यप्रवृत्तस्य स्वात्मबोध: प्रहीयते ।।१९४।। अन्वय :- कषाय-आकुलित: जीव: परद्रव्ये प्रवर्तते । परद्रव्य-प्रवृत्तस्य स्व-आत्मबोधः प्रहीयते।
[C:/PM65/smarakpm65/annaji/yogsar prabhat.p65/137]