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बन्ध अधिकार
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सरलार्थ :- पुण्य-पापरूप कर्म के कारण ही संसाररूपी दुःखद वन में प्रवेश होता है, यह जानकर शुद्धबुद्धिवाले जीव पुण्यपाप में भेद नहीं मानते अर्थात् दोनों को संसार-वन में भ्रमाने की दृष्टि से समान समझते हैं।
भावार्थ :- जो शुद्धबुद्धि/सम्यग्दृष्टि हैं, वे यह देखकर कि पुण्य और पाप दोनों ही जीव को संसार-वन में प्रवेश कराकर, उसे इधर-उधर भ्रमाकर दुःखित करनेवाले हैं, दोनों में कोई वास्तविक भेद नहीं है, दोनों को ही पराधीन-कारक बन्धन समझते हैं। भले ही पुण्य से कुछ सांसारिक सुख मिले; परन्तु उस सुख के पराधीनतामय स्वरूप और उसकी क्षणभंगुरतादि को देखते हुए उसे वास्तविक सुख नहीं कहा जा सकता।
समयसार का पुण्य-पाप अधिकार पुण्य-पाप के सच्चे स्वरूप को समझने के लिए अत्यन्त उपयोगी है, उसे जरूर पढ़ें। आचार्य कुंदकुंद ने गाथा १४५ में इसी भाव को स्पष्ट समझाया है। नाटक समयसार में पुण्य-पाप अधिकार को 'पुण्य-पाप एकत्व द्वार' ऐसा नाम देकर ही ग्रंथकर्ता पं. बनारसीदासजी ने सब कुछ समझा दिया है।
सर्वज्ञ कथित शास्त्र में अत्यन्त विशद रीति से आचार्यों ने और अन्य विद्वानों ने भी पुण्य-पाप के एकत्व को समझाया है, तो भी अज्ञानी अपने दीर्घ संसार के कारण इस सत्य को मानते नहीं हैं, यह खेद का विषय है। आत्मस्वरूप में अवस्थित योगी को मुक्ति की प्राप्ति -
(हरिणी) विषय-सुखतो व्यावृत्य स्व-स्वरूपमवस्थितस्त्यजति धिषणां धर्माधर्म-प्रबन्ध-निबन्धिनीम् ।। जनन-गहने दुःखव्याने प्रवेशपटीयसीं।
कलिल-विकलं लब्ध्वात्मानं स गच्छति निर्वृत्तिम् ।।१९०।। अन्वय :- विषय-सुखत: व्यावृत्य स्व-स्वरूपं अवस्थितः (य : योगी) धर्म-अधर्मप्रबन्ध-निबन्धिनीं दुःख-व्याने जनन-गहने प्रवेश-पटीयसी धिषणां त्यजति सः (योगी) कलिल-विकलं आत्मानं लब्ध्वा निर्वृतिं गच्छति।
सरलार्थ :- जो योगी विषय-सुख से निवृत्त होकर अपने आत्मस्वरूप में अवस्थित होते हैं और धर्माधर्मरूप पुण्य-पाप के बन्ध की कारणभूत उस बुद्धि का त्याग करते हैं, जो बुद्धि दुःखव्याघ्र से व्याप्त गहन संसार-वन में प्रवेश करानेवाली है, वे कर्मरहित विविक्त अर्थात् शुद्ध आत्मा को पाकर मुक्ति को प्राप्त होते हैं।
भावार्थ :- यह बन्धाधिकार के उपसंहार का श्लोक है। जिस बुद्धि का इस पूरे अधिकार में विस्तार से वर्णन किया है, उसी का इस श्लोक में संक्षेप से उल्लेख है और उसे पुण्य-पाप का बन्ध करानेवाली तथा दुःखरूप व्याघ्र-समूह से व्याप्त गहन संसार-वन में प्रवेश करानेवाली लिखा है। इस बुद्धि को वे ही योगी त्यागने में समर्थ होते है,जान्द्रियविषयों के सुख को वास्तविक सुख न मानते हुए उससे विरक्त एवं निवृत्त होकर अपने आत्म-स्वरूप में स्थित होते हैं, वे ही कर्मकलंक से रहित शुद्धात्मतत्त्व को प्राप्त होकर मुक्ति को प्राप्त होते हैं - बन्धन से सर्वथा छूट जाते हैं।