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योगसार-प्राभृत
विसयकसाओगाढो दुस्सुदिदुच्चित्तदुठ्ठगोठिजुदो।
उग्गो उम्मग्गपरो उवओगो जस्स सो असुहो। गाथार्थ :- जिसका उपयोग विषय-कषाय में अवगाढ अर्थात् मग्न है; कुश्रुति, कुविचार और कुसंगति में लगा हुआ है; उग्र है तथा उन्मार्ग में लगा हुआ है, उसका वह अशुभोपयोग है। अज्ञानी पुण्य-पाप में भेद मानता है -
सुखासुख-विधानेन विशेष: पुण्य-पापयोः ।
नित्य-सौख्यमपश्यद्भिर्मन्यते मुग्धबुद्धिभिः ।।१८८।। अन्वय :- नित्य-सौख्यं अपश्यद्भिः मुग्धबुद्धिभिः सुख-असुख-विधानेन पुण्य-पापयोः विशेष: मन्यते।
सरलार्थ :- जो जीव नित्य अर्थात् शाश्वत, सच्चे निराकुल सुख से अपरिचित हैं, वे ही अज्ञानी इंद्रियजन्य सुख-निमित्तक कर्म को पुण्य और दुःख-निमित्तक कर्म को पाप, ऐसा भेद जानते/मानते हैं।
भावार्थ :- शरीर को ही आत्मा जानने/माननेवाले आत्मविमूढ़ जीव को इंद्रियों से उत्पन्न सुख ही सब कुछ लगता है अर्थात् श्रेष्ठ लगता है।
शरीर अर्थात् पाँच इंद्रिय और उनके विषय जिनके लिये सर्वस्व हैं, वे आत्मिक-सुख से अनादि काल से अनभिज्ञ हैं। इसकारण बाह्य अनकलता में निमित्त होनेवाले पण्य कर्म को कर्म न मानकर धर्म ही मानने-लगते हैं। अतः पुण्य की प्राप्ति और पाप के परिहार के लिये ही प्रयासरत रहते हैं। अतः जिनवाणी के बिना सच्चे स्वरूप को समझानेवाला इस संसार में कोई नहीं है। इसलिए शास्त्र से यथार्थ स्वरूप को जानना चाहिए।
शास्त्र में भी पुण्य-पाप के भेद की चर्चा अधिक आयेगी। यथार्थ देशना से ही सत्य-स्वरूप समझ में आ सकता है; जो दुर्लभ एवं शास्त्र में भी अल्पमात्रा में ही है।
प्रवचनसार की गाथा ७७ में पुण्य-पापसंबंधी ऐसा ही मार्मिक कथन आया है, उसे जरूर देखें। बुद्धिमान पुण्य-पाप को एक मानते हैं -
पश्यन्तो जन्मकान्तारे प्रवेशं पुण्य-पापतः।
विशेष प्रतिपद्यन्ते न तयोः शुद्धबुद्धयः ।।१८९।। अन्वय :- पुण्य-पापत: जन्मकान्तारे प्रवेशं (भवति । एतत्) पश्यन्तः शुद्धबुद्धयः तयोः (पुण्य-पापयोः) विशेषं न प्रतिपद्यन्ते।
[C:/PM65/smarakpm65/annaji/yogsar prabhat.p65/134]