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योगसार प्राभृत
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फल को भोगता हुआ जीव मूर्तिक होता है । कर्म-फल को भोगनेवाले सब जीव संसारी होते हैं और संसारी जीव अनादि कर्म-सम्बन्ध के कारण व्यवहार से मूर्तिक कहे जाते हैं। कर्म-रहित जीव अमूर्तिक -
मूर्तो भवत्यमूर्तोऽपि पुण्यपापवशीकृतः ।
यदा विमुच्यते ताभ्याममूर्तोऽस्ति तदा पुनः ।। १८४।।
अन्वय :- पुण्य-पाप- वशीकृत: अमूर्त: ( जीव:) अपि मूर्त: भवति । यदा (स: जीव: ) ताभ्यां विमुच्यते तदा पुन: अमूर्तः अस्ति ।
सरलार्थ :- पुण्य-पापरूप कर्म के वशीभूत हुआ अमूर्तिक जीव भी मूर्तिक हो जाता है और जब जीव उन पुण्य-पाप दोनों कर्मों से छूट जाता है, तब वह अमूर्तिक होता है ।
भावार्थ :- पिछले श्लोक में अमूर्तिक जीव के मूर्तिक होने की जो बात कही गयी है उसी को इस श्लोक में स्पष्ट करते हुए लिखा है कि मूर्तिक पुण्य-पाप के वश में / बन्धन में पड़ा हुआ जीव वस्तुतः अमूर्तिक होते हुए भी मूर्तिक होता है और जब वह उन दोनों के बन्धन से छूट जाता है तब स्वरूप में स्थित हुआ स्वयं अमूर्तिक हो जाता है। जीव का संसारावस्थारूप जितना भी विभावरूप परिणमन है, वह सब उसे मूर्तिक बनाता है।
जीव के अमूर्तिकपने का उदाहरण -
विकारं नीयमानोऽपि कर्मभि: सविकारिभिः । मेघैरिव नभो याति स्वस्वभावं तदत्यये ।। १८५ ।।
अन्वय :
सविकारिभिः कर्मभिः विकारं नीयमानः अपि (जीव:) मेघैः अत्यये नभः इव तदत्यये (तस्य-विकारस्य अत्यये) स्व-स्वभावं याति ।
सरलार्थ :- जिसप्रकार मेघों से विकार को प्राप्त हुआ आकाश उन मेघों के विघटित हो जा पर अपनी स्वाभाविक स्थिति को प्राप्त होता है । उसीप्रकार विकारी कर्मों के द्वारा विकार को प्राप्त हुआ यह संसारी जीव उन विकारों के नाश होने पर अपने (मूल) स्वभाव को प्राप्त होता है।
भावार्थ :- ज्ञानावरणादि आठों कर्मों से रहित पूर्ण शुद्धरूप सिद्ध पर्याय की प्राप्ति होने पर ही जीव अपने स्वभावानुसार पर्याय में भी अमूर्तिक होता है।
पुण्यबंध के कारण -
अर्हदादौ परा भक्तिः कारुण्यं सर्वजन्तुषु ।
पावने चरणे रागः पुण्यबन्धनिबन्धनम् । । १८६।।
अन्वय :
अर्हत्-आदौ परा भक्ति:, सर्वजन्तुषु कारुण्यं, (च) पावने चरणे राग: ( इदं सर्वं ) पुण्य-बन्ध - निबन्धनम् (अस्ति) ।
सरलार्थ :- अरहंत आदि में उत्कृष्ट भक्ति, सर्व प्राणियों में करुणाभाव और पवित्र चारित्र के
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