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योगसार-प्राभृत
बनवाते हैं तथा अनुमोदना भी करते हैं । वसतिका भी तैयार करते-कराते हैं । इन कारणों से आरम्भ
और आरम्भ से पाप का होना अनिवार्य है; तथापि उस पाप से मुनिराज को किंचित् मात्र भी कर्म का बंध नहीं होता।
उसी समय संज्वलन कषायजन्य परिणामों से किंचित् आस्रव-बंध भी होता ही है। अपेक्षा को समझना यथार्थ अर्थ करने का सच्चा उपाय है । आहारादि के कारण होनेवाले पाप का बंध मुनिराज को नहीं होता; क्योंकि आहार बनानेरूप पाप कार्य उनके कृत, कारित एवं अनुमोदना से रहित हैं। इतना ही बताना यहाँ प्रयोजनभूत है। सूक्ष्मता से देखा जाय तो जबतक सूक्ष्म लोभ रहता है तबतक तीन घाति कर्मों का तथा साता वेदनीय, उच्चगोत्र आदि अघाति कर्मों का बंध भी क्षपक सूक्ष्मसाम्पराय गुणस्थानवर्ती महामुनिराज को भी होता ही है। श्रावक के परिणामों से मुनिराज को बंध नहीं होता -
परद्रव्यगतै-र्दोषैर्नीरागो यदि बध्यते ।
तदानीं जायते शुद्धिः कस्य कुत्र कुत: कदा ।।१७०॥ अन्वय :- परद्रव्यगतैः दोषैः यदि नीरागः बध्यते; तदानीं कस्य कदा कुत्र कुतः शुद्धिः जायते ?
सरलार्थ :- परद्रव्य में उत्पन्न होनेवाले दोषों के कारण यदि वीतरागी मुनिराज को कर्म का बंध होता रहे तो फिर किसकी, कब, कहाँ और कैसे शुद्धि हो सकती है? अर्थात् शुद्धि नहीं हो सकती।
भावार्थ :-योगी/मुनि के लिये आहारादि बनाने-बनवाने-अनुमोदना करने में जिस आरम्भादिजनित दोष की पिछले श्लोक में सूचना है, उसे यहाँ ‘पर-द्रव्याश्रित दोष' बतलाया है और साथ ही यह निर्देश किया है कि ऐसे परद्रव्याश्रित दोषों से यदि नीरागी योगी को भी बन्ध होने लगे तो फिर किसी भी जीव की किसी भी काल में किसी भी स्थान पर और किसी भी प्रकार से शुद्धि नहीं हो सकती।
अपने आत्मा में अशुद्धि अपने द्रव्यगत रागादि दोषों से ही होती है - परद्रव्यगत दोषों से नहीं। अतः दोष कोई करे और उस दोष से किसी दूसरे को बन्ध हो, इस भ्रान्त-धारणा को छोड़ देना चाहिए । प्रत्येक जीव अपने-अपने शुभ-अशुभ भावों के ही अनुसार शुभ-अशुभ बन्ध को प्राप्त होता है, यह अनन्त सर्वज्ञों द्वारा कथित अटल सिद्धान्त है। विषयों के ज्ञाता-दृष्टा योगी अबन्धक -
नीरागो विषयं योगी बुध्यमानो न बध्यते।
परथा बध्यते किं न केवली विश्ववेदकः ।।१७१।। अन्वय :- नीराग: योगी विषयं बुध्यमानः (अपि) न बध्यते; परथा विश्ववेदकः केवली
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