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________________ बन्ध अधिकार १२५ किं न बध्यते? सरलार्थ :- जो वीतरागी योगी अर्थात् मुनिराज हैं, वे विषयों को जानते हुए कर्मबंध को प्राप्त नहीं होते। यदि विषयों को जानने से कर्मबंध होता हो तो विश्व के ज्ञाता केवली कर्मबंध को प्राप्त क्यों नहीं होंगे? भावार्थ :- यदि विषयों को जानने मात्र से कर्म का बंध माना जाये तो सामान्य ज्ञानी अर्थात् मतिश्रुतज्ञानी से अवधिज्ञान के धारकों को अधिक बंध होना चाहिए। अवधिज्ञानी से अधिक कर्मबंध मनःपर्यय ज्ञान के धारकों को होना आवश्यक हो जायगा । इतना ही नहीं मति-श्रुतज्ञान के धारकों में भी जिनको जितना विशाल ज्ञान हैं; उन्हें कर्मबंध अधिक मानना पडेगा; लेकिन वस्तुस्वरूप ऐसा नहीं है। ज्ञेयों को मात्र जानने से बंध नहीं होता, यही वस्तुस्थिति है। कर्म के बंध में मोह परिणाम ही निमित्त है, जीव के ज्ञानादि गुण व उनका परिणमन कर्मबंध में कारण नहीं । ज्ञान अर्थात् जानना तो जीव का स्वभाव है। स्वभाव कभी कर्मबंध में निमित्त हो नहीं सकता। आचार्य महाराज ने तो केवलज्ञानी को बंध क्यों नहीं होगा ? ऐसा प्रश्न पूछकर विषयों को जानने मात्र से बंध माननेवालों की मान्यता को मिथ्या कहा है। प्रश्न :- समयसार गाथा १७०-१७१ में ज्ञान गुण को बंध का कारण कैसे कहा है? उत्तर :- समयसार गाथा १७२ में जघन्यभाव से परिणत ज्ञान को बंध का कारण बताया और इस गाथा की टीका में स्पष्ट किया है कि जघन्यज्ञान के साथ राग अवश्य रहता है और राग ही बंध का कारण है। अतः ज्ञान को उपचार से बंध का कारण कहा है। ज्ञानी एवं अज्ञानी में भिन्नता - ज्ञानिना सकलं द्रव्यं ज्ञायते वेद्यते न च । अज्ञानिना पुनः सर्वं वेद्यते ज्ञायते न च ।।१७२।। अन्वय :- ज्ञानिना सकलं द्रव्यं ज्ञायते न वेद्यते च पुनः अज्ञानिना सर्वं वेद्यते न च ज्ञायते । सरलार्थ :- ज्ञानी जीव समस्त वस्तु-समूह को जानते हैं; परंतु उसका वेदन नहीं करते और अज्ञानी जीव सकल वस्तु-समूह का वेदन करते हैं; किन्तु जानते नहीं। भावार्थ :- ज्ञानी अपनी योग्यतानुसार सकल वस्तु-समूह को ज्ञान से प्रत्यक्ष जानते हैं; लेकिन उनका वेदन नहीं करते और अज्ञानी जीव अपने ज्ञानावरणकर्म के क्षयोपशमानुसार व्यक्त ज्ञान में ज्ञेय बननेवाले सकल वस्तु-समूह का वेदन करते हैं; परन्तु उनको वे जानते नहीं। ज्ञान और वेदन की परिभाषा - यथावस्तुपरिज्ञानं ज्ञानं ज्ञानिभिरुच्यते । राग-द्वेष-मद-क्रोधैः सहितं वेदनं पुनः ।।१७३।। [C:/PM65/smarakpm65/annaji/yogsar prabhat.p65/1251
SR No.008391
Book TitleYogasara Prabhrut
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorYashpal Jain
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages319
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size920 KB
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