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बन्ध अधिकार
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कनकं मलमध्येऽपि न मलैरुपलिप्यते ।।१६८।। अन्वय :- (यथा) मलमध्ये अपि कनकं मलैः न उपलिप्यते (तथा) विषय-संगे (सति) अपि ज्ञानी विषयैः न एव लिप्यते । ___ सरलार्थ :- जैसे किसी भी प्रकार के कीचड़ादि मल में पड़ा हुआ शुद्ध सुवर्ण मल के कारण से अशद्ध नहीं होता: वैसे जानी अर्थात चौथे-पाँचवें गणस्थानवर्ती श्रावक भी अनेक प्रकार के विषयभोगों को भोगते हुए भी उन विषयों के कारण मिथ्यात्व-जन्य कर्मों से बद्ध नहीं होते अर्थात् निर्लिप्त ही रहते हैं। ____ भावार्थ :- यहाँ ज्ञानी शब्द का अर्थ मात्र श्रावक ही लेना चाहिए मुनि नहीं, क्योंकि उसे ही आगे भोगों में रहनेवाला कहा है।
कर्म का बन्ध नहीं होता, इसका अर्थ मात्र मिथ्यात्व और अनन्तानुबंधी कर्मों का ही बंध नहीं होता, ऐसा अर्थ करना आवश्यक है। भूमिका के योग्य भोग भोगते समय जो राग-द्वेष होंगे, उनके कारण से होनेवाले चारित्र मोहनीय कर्म के बंध होने का यहाँ निषेध समझना आगम परिपाटी के अनुसार उचित नहीं है अर्थात् यथायोग्य बंध होता ही है।
अध्यात्म-शास्त्र में मिथ्यात्व एवं मिथ्यात्वजन्य बंध को ही बंध माना जाता है, अन्य को नहीं। यह योगसारप्राभृत शास्त्र भी अध्यात्म ग्रंथ है।
इस श्लोक में कथित विषय समयसार गाथा २१८ एवं २१९ तथा इनके आगे-पीछे टीका तथा कलशों में कनक के दृष्टान्त के साथ ही आया है। उस समग्र अंश को आचार्य अमितगति ने यहाँ दिया है। साधक योगी आहारादि से अबन्धक -
आहारादिभिरन्येन कारितैर्मोदितैः कृतैः।।
तदर्थं बध्यते योगी नीरागो न कदाचन ।।१६९।। अन्वय :- नीराग: योगी तदर्थं अन्येन कृतैः कारितैः मोदितैः (च) आहारादिभिः कदाचन न बध्यते।
सरलार्थ :- अनंतानुबंधी आदि तीन कषाय चौकडी के अभावपूर्वक व्यक्त वीतरागता सहित योगी/अर्थात् मुनिराज के लिए दूसरों से अर्थात् श्रावकों से किये, कराये तथा अनुमोदित आहार, वसतिका आदि से मुनिराज कभी भी बंध को प्राप्त नहीं होते।
भावार्थ :- इस श्लोक में नीरागी शब्द का अर्थ कथंचित् वीतरागी ही करना चाहिए; क्योंकि यह शब्द आहारादि लेनेवाले मुनिराज के लिये प्रयुक्त हुआ है। उन्हें तीन कषाय चौकडी के अभावपूर्वक व्यक्त हुई वीतरागता है और संज्वलन कषाय के उदय से राग भी विद्यमान है। इस कषाय के कारण ही उन्हें यथायोग्य राग-द्वेष होते हैं । मुनिराज के लिये श्रावक ही आहार बनाते हैं,
[C:/PM65/smarakpm65/annaji/yogsar prabhat.p65/123]