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योगसार-प्राभृत
भावार्थ :- पिछले श्लोकों में तथा इससे पूर्व के आस्रवाधिकार में भी बुद्धि आदि के रूप में जिस ज्ञान, दर्शन तथा चारित्र को सदोष बतलाया है, उसकी सदोषता के कारण को इस श्लोक में स्पष्ट किया गया है और वह है मिथ्यात्व का सम्बन्ध, जिसे यहाँ कर्दम-कीचड़ की उपमा दी गयी है। कीचड़ के सम्बन्ध से जिसप्रकार वस्त्र मैला हो जाता है, उसीप्रकार मिथ्यात्व कर्म के उदय का निमित्त पाकर जीव के दर्शन/श्रद्धा, ज्ञान, चारित्र मलीन हो जाते हैं।
यहाँ जीव द्रव्य के श्रद्धा गुण की मिथ्यात्व पर्याय को निमित्त कहा है और उसी जीव द्रव्य के चारित्र गुण तथा ज्ञान गुण में मिथ्यापना होनेरूप नैमित्तिक कार्य को बताया है। साथ ही चारित्र और ज्ञान गुण का संगति करनेरूप उपादानगत दोष भी स्पष्ट किया है। चारित्रादि गुणों का पर्यायगत स्वभाव -
चारित्रादि-त्रयं दोषं स्वीकरोति मलीमसम् ।
न पुनर्निर्मलीभूतं सुवर्णमिव तत्त्वतः ।।१६५।। अन्वय :- वस्तुतः मलीमसं चारित्रादि-त्रयं दोषं स्वीकरोति पुनः सुवर्णं इव निर्मलीभूतं (चारित्रादि-त्रयं) न (दोषं स्वीकरोति)
सरलार्थ :- मिथ्यात्व अवस्था में विद्यमान चारित्र, दर्शन एवं ज्ञान मिथ्या दोष को स्वीकार कर मिथ्यारूप/परिणमते हैं; परंतु मिथ्यात्व रहित साधक तथा सिद्ध अवस्था में अत्यन्त परिशुद्ध/ निर्मल पर्यायरूप परिणत सम्यक् चारित्र, दर्शन एवं ज्ञान मिथ्यारूप दोष को ग्रहण नहीं करते; वे चारित्र आदि भविष्य में अनंतकाल तक सम्यक्प ही रहते हैं। जैसे कि किट्ट-कालिमा से रहित शुद्ध निर्मल/सुवर्ण फिर से उस किट्ट-कालिमा को ग्रहण नहीं करता।
भावार्थ :- पिछले श्लोक में मिथ्यात्व के योग से ज्ञान-दर्शन-चारित्र का सदोष होना बतलाया था, अब यह प्रश्न उत्पन्न होता है कि जो ज्ञान-दर्शन-चारित्र मल का संग त्यागकर पूर्णतः निर्मल हो गये हैं, वे भी क्या पुनः मिथ्यात्व के योग से मलिन हो जाते हैं? इसी के समाधानार्थ इस श्लोक का अवतार हुआ जान पड़ता है।
इसमें बतलाया है कि जो ज्ञान-दर्शन-चारित्र मलिन हैं - किसी भी मल से युक्त हैं अथवा सत्ता में मल को लिये हुए हैं, वही वस्तुतः दोष को स्वीकार करते हैं, दूसरे मल को ग्रहण करते हैं अथवा मलरूप परिणत होते हैं, मल से ही मल की परिपाटी चलती है।
जो पूर्णतः निर्मल हो गये हैं वे फिर से मिथ्यात्व के संग से मलिन नहीं होते । जिसप्रकार पूर्णतः निर्मल हुआ स्वर्ण, दिन-रात कीचड़ में पड़ा रहने पर भी फिर से किट्ट-कालिमा को ग्रहण नहीं करता।
इसी में मुक्ति का तत्त्व छिपा हुआ है। जिन जीवों का दर्शन-ज्ञान-चारित्र पूर्णतः निर्मल हो जाता है, वे फिर से भव धारण कर अथवा अवतार लेकर संसार-भ्रमण नहीं करते, सदा के लिये
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