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बन्ध अधिकार
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भव-बन्धनों से मुक्त हो जाते हैं।
वस्तुगत स्वाभाविक व्यवस्था अतिशय अनुकूल एवं सुख-प्रदाता है; क्योंकि दुःख अवस्था का नाश करके पूर्ण रीति से सुखरूप परिणमन की व्यवस्था तो है; लेकिन पूर्ण सुखरूप परिणमन करने के बाद पुनः दुःखरूप अवस्था की प्राप्ति नियम से नहीं होती।
जैसे दूध में से दही, मक्खन और घी की प्राप्ति तो होती है, लेकिन घी पुनः मक्खनादिरूप परिणत नहीं होता। वैसे ही सिद्ध जीव पुनः कभी संसारी नहीं होते। भोगता हुआ सम्यग्दृष्टि अबन्धक -
नीरागोऽप्रासुकं द्रव्यं भुञ्जानोऽपि न बध्यते।
शङ्खः किं जायते कृष्ण: कर्दमादौ चरन्नपि ।।१६६।। अन्वय :- कर्दमादौ चरन् अपि शङ्खः किं कृष्ण: जायते ? (न जायते; तथा एव) नीराग: (जीव:) अप्रासुकं द्रव्यं भुञ्जानः अपि न बध्यते।
सरलार्थ :- जिसप्रकार कीचड आदि में विचरता/पडा हुआ भी शंख क्या काला हो जाता है? कदापि काला नहीं हो जाता, वह सफेद ही बना रहता है। उसीप्रकार जो कथंचित् वीतरागी हुआ श्रावक है, वह अप्रासुक पदार्थों का भोजन/सेवन करता हुआ भी मिथ्यात्वादि अनेक कर्म प्रकृतियों के बन्ध को प्राप्त नहीं होता।
भावार्थ :- नीरागः शब्द का अर्थ हमने कथंचित् वीतरागी इसलिए किया है, क्योंकि वह अप्रासुक द्रव्य का भोग कर रहा है। पूर्ण वीतरागी होने के बाद तो भोजनादि सब भोगों का अभाव हो जाता है। दूसरा कथंचित् वीतरागी का अर्थ भी हमने श्रावक पर घटाया है; क्योंकि वह अप्रासुक द्रव्य का भोग कर रहा है; इसलिए मुनि नहीं हो सकता, श्रावक ही होना चाहिए । भूमिका के योग्य होनेवाले रागादि परिणामों से नया बंध भी होता रहता है, उसका यहाँ निषेध नहीं समझना चाहिए।
इस हेतु समयसार गाथा २०१-२०२ की जयसेनाचार्य विरचित तात्पर्यवृत्ति टीका देखिए, जिसका सार निम्नानुसार है -
“रागी सम्यग्दृष्टि नहीं होता - ऐसा आपने कहा, तब चौथे-पाँचवें गुणस्थानवर्ती भरतादिक सम्यग्दृष्टि नहीं है ? ऐसा नहीं है। मिथ्यादृष्टि की अपेक्षा से तैंतालीस प्रकृतियों का उसे बंध नहीं होता; अत: वे सराग सम्यग्दृष्टि नहीं हैं ? यह कैसे ? ऐसा पूछने पर बताते हैं कि चतुर्थ गुणस्थानवर्ती जीवों के अनंतानुबंधी क्रोधादि जो पाषाण रेखा के समान है, उनका अभाव होने से वे (बारा कषाय सहित रागवाले) सराग सम्यग्दृष्टि हैं।
पुनश्च पंचम गुणस्थानवी जीवों के भूमि रेखा आदि के समान अप्रत्याख्यान क्रोध-मानमाया-लोभ जनित रागादि का अभाव होने से वे उतने राग सहित सराग सम्यग्दृष्टि हैं।
अप्रासुक द्रव्य के सेवन से तो बंध होता ही है; तथापि उसी समय जो प्रगट शुद्ध परिणतिरूप
[C:/PM65/smarakpm65/annaji/yogsar prabhat.p65/121]