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________________ १६० यदि चूक गये तो वे तो जिनेन्द्रदेव की मूर्ति के माध्यम से निज परमात्म स्वभाव को जानकरपहिचानकर, उसी में जम जाना, रम जाना चाहते हैं। ऐसी भावना से ही एक न एक दिन भक्त स्वयं भगवान बन जाता है। थोड़ी-सी बाह्य अनुकूलता पाकर, यदि हम यह स्वर्ण अवसर चूक गये तो दुर्गति में हमारा ही आत्मा हमसे पूछेगा - “क्या पाया है तूने पर व पर्यायों में उलझकर ?” अतः क्यों न सीख लें, समझ लें इन सुखद सिद्धान्तों को और सफल कर लें अनुकूल संयोगों को इसी में है सबका भला, यही है। सुखी जीवन की कला। -- चाहे इसे मानवीय मनोविज्ञान कहो या मानवीय कमजोरी, पर यह एक मनोवैज्ञानिक तथ्य है कि अधिकांश व्यक्ति दूसरों की घटनायें सुनतेसुनते स्वयं अपने जीवन की घटनाएँ सुनाने को उत्सुक ही नहीं आतुर तक हो उठते हैं और कभी-कभी तो भावुकतावश न कहने योग्य बातें भी कह जाते हैं। जिनसे वाद-विवाद बढ़ने की संभावना हो, ऐसी बातें कहने से भी अपने को रोक नहीं पाते। संसार में जो आया है, उसे जाना तो पड़ता ही है; पर जाने से पहले यदि वह कुछ ऐसे काम कर ले, जिनसे स्व-पर कल्याण हो सके तथा अपने स्वरूप को जान ले, पहचान ले, उसी में जम जाये, रम जाये, समा जाये तो उसका जीवन धन्य हो जाता है, सार्थक हो जाता है, सफल हो जाता है। -- -- गम्भीर, विचारशील और बड़े व्यक्तित्व की यही पहिचान है कि वे नासमझ और छोटे व्यक्तियों की छोटी-छोटी बातों से प्रभावित नहीं होते, किसी भी क्रिया की बिना सोचे-समझे तत्काल प्रतिक्रिया प्रगट नहीं करते । अपराधी पर भी अनावश्यक उफनते नहीं हैं, बड़बड़ाते नहीं हैं, बल्कि उसकी बातों पर, क्रियाओं पर शान्ति से विचार करके उचित निर्णय लेते हैं, (८१) शलाका पुरुष भाग-२ से तदनुसार कार्यवाही करते हैं और आवश्यक मार्गदर्शन देते हैं। १६१ यदि एक इंजीनियर भूल करेगा तो कोई बड़ा अनर्थ होने वाला नहीं है, उसकी भूल से कुछ मकान, पुल या बाँध ही ढहेंगे एक डॉक्टर भूल करेगा तो भी कोई बड़ी हानि नहीं होगी, केवल थोड़े से ही व्यक्ति बीमार होंगे; एक मैनेजर भूल करेगा तो कोई कलकारखाना या मिल ही घाटे में जायेगा और कोई सी. ए. भूल करेगा तो थोड़ा-बहुत हिसाब ही गड़बड़ाएगा; परन्तु यदि अध्यापक भूल करेगा तो पूरे राष्ट्र का ढांचा ही चरमरा जायेगा; क्योंकि अध्यापक भारत के भावी भाग्य विधाताओं के चरित्र का निर्माता है; कोमलमति बालकों में नैतिकता के बीज बोनेवाला और अहिंसक आचरण तथा सदाचार के संस्कार देनेवाला उनका गुरु है । अतः उसे न केवल प्रतिभाशाली, बल्कि सदाचारी और नैतिक भी होना चाहिए। धर्म के क्षेत्र में तो यह नीति और भी अधिक महत्त्वपूर्ण है; क्योंकि एक धर्मोपदेशक के द्वारा, भय, आशा, स्नेह, लोभवश या अज्ञानता से मिथ्या उपदेश दिया गया तो हमारा मानव जीवन ही निरर्थक हो जायेगा, भव-भव भी बिगड़ सकते हैं। कहीं सचमुच ऐसा न हो कि सच्चे वैराग्य के बजाय लोग पारिवारिक परिस्थितियों से परेशान होकर कहीं किसी से द्वेष या घृणा करने लगे हों और भ्रम से उसे ही वैराग्य मान बैठे हों। परेशानी की परिस्थितियों में सभ्य भाषा में लोग ऐसी वैराग्य की भाषा बोलते हैं, कभी-कभी उन्हें स्वयं को ऐसा लगने भी लगता है कि वे विरागी हो रहे हैं; जबकि उन्हें वैराग्य नहीं, वस्तुतः द्वेष होता है। केवल राग अपना रूप बदल लेता है; वह राग ही द्वेष में परिणित हो जाता है, जिसे वे वैराग्य या संन्यास समझ लेते हैं। सदासुखी सोचता है कि - "केवल नाम सदासुखी रखने से थोड़ी ही
SR No.008389
Book TitleYadi Chuk Gaye To
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahavir Prasad Jain
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2007
Total Pages85
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size276 KB
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