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________________ १६२ यदि चूक गये तो कोई सुखी हो जाता है, सुख-शान्ति प्राप्त करने के लिए हमें काम भी ऐसा करना चाहिए, जिससे सुख की प्राप्ति हो। मैंने अपने जीवन में ऐसा कोई काम ही नहीं किया। मैं तो दिन-रात एकमात्र पैसा कमाने के चक्कर में ही पड़ा रहा। वस्तुतः मैं ऐसा मान बैठा था कि पैसा ही सब सुखों का साधन है, पैसे से सब कुछ पाया जा सकता है, पर अब मेरा यह भ्रम दूर हो गया है; पैसा बहुत कुछ हो सकता है, पर सब कुछ नहीं। अब मैं स्वयं प्रत्यक्ष देख रहा हूँ कि कल तक मेरे पास क्या नहीं था ? करोड़ों की चल-अचल संपत्ति, अटूट आमदनी के स्रोत; पर पाप का उदय आते ही वह सब संपत्ति देखते ही देखते विपत्ति बन गई है। " मैं शरीर नहीं, मैं तो एक अखण्ड ज्ञानानन्द स्वभावी अनादि-अनन्त एवं अमूर्तिक आत्मा हूँ तथा यह शरीर मुझसे सर्वथा भिन्न जड़ स्वभावी, सादि-सान्त, मूर्तिक पुद्गल है। इससे मेरा कोई संबंध नहीं है। -- “जिसे आपने कभी न देखा, न पहचाना, उससे मोह कैसा ? मैं शरीर नहीं आत्मा हूँ, जो अमूर्तिक है, अरूढ़ी है। अरूपी आत्मा को ये आखें देख नहीं सकती, पहचान नहीं सकतीं, इस कारण आप मुझसे राग-द्वेष का भाव छोड़ें। मैं भी आप सबके प्रति हुए मोह एवं राग-द्वेष को छोड़ना चाहता हूँ। आप लोग मेरे महाप्रयाण के बाद, खेद - खिन्न न हों तथा आत्मा परमात्मा की साधना-आराधना में सदा तत्पर रहें। बस, यही मेरा आपको संदेश है, उपदेश है, आदेश है और आशीर्वाद है । इसे जिस रूप में चाहें ग्रहण करें, पर इस कल्याण के मार्ग में अवश्य लगें । इस स्वर्ण अवसर को यों ही न जाने दें। यदि यह अवसर चूक गये तो.. ।” कहते कहते पिता के प्राण पखेरु उड़ गये, वे परलोक के वासी बन गये । -- वस्तुओं के अनुसार ज्ञान नहीं होता; बल्कि अपने इन्द्रियज्ञान की (८२) शलाका पुरुष भाग-२ से योग्यतानुसार ही वस्तुएँ जानी जाती हैं। इसे ही शास्त्रीय भाषा में ऐसा कहा गया है कि ज्ञेयों के अनुसार ज्ञान नहीं होता, बल्कि अपने-अपने प्रगट ज्ञान पर्याय की योग्यता के अनुसार ज्ञेय जाने जाते हैं अर्थात् जिसकी ज्ञानपर्याय में जिस पदार्थ को जिसरूप में जानने की योग्यता होती है, वह ज्ञान उसी पदार्थ को उसी रूप में ही जानता है। इस कारण वस्तुओं के सही रूप को केवली के सिवाय कोई जानता ही नहीं है। -- १६३ यह कैसा विचित्र संयोग है, पुण्य-पाप का ? यह रूप लावण्य सचमुच कोई गर्व करने जैसी चीज नहीं है। इतना और ऐसा पुण्य तो पशु-पक्षी भी कमा लेते हैं, फुलवारियों के फूल भी कमा लेते हैं, वे भी देखने में बहुत सुन्दर लगते हैं; पर कितने सुखी हैं वे ? जब पाप का उदय आता है तब परिस्थिति बदलते देर नहीं लगती। जो अपने गौरव सुख के निमित्त होते हैं, वे ही गले के फंदे बन जाते हैं। -- वस्तु स्वातंत्र्य किसी धर्म विशेष या दर्शन विशेष की मात्र मानसिक उपज या किसी व्यक्ति विशेष का वैचारिक विकल्प मात्र नहीं है। बल्कि यह सम्पूर्ण भौतिक एवं जैविक जगत की अनादि-अनन्त स्व-संचालित सृष्टि का स्वरूप है, ऑटोमैटिक विश्व व्यवस्था है। -- इस जगत में जितने चेतन व अचेतन पदार्थ हैं, जीव-अजीव द्रव्य हैं; वे सब पूर्ण स्वतंत्र हैं, स्वावलम्बी है। उनका एक-एक समय का परिणमन भी पूर्ण स्वाधीन है। संयोगों पर से संपूर्णतया ज्ञानोपयोग को हटाकर पाँच इन्द्रियों और मन के माध्यम से विकेन्द्रित ज्ञानोपयोग को आत्मा में केन्द्रित करने की, उपयोग को आत्मसन्मुख करने की अंतर्मुखी प्रक्रिया ही ध्यान है। इसमें एक शुद्धात्मा
SR No.008389
Book TitleYadi Chuk Gaye To
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahavir Prasad Jain
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2007
Total Pages85
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size276 KB
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