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यदि चूक गये तो
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हो जाने का भय हो । जो भी बातें कहो, वे तोल-तोल कर कहो, ऐसा समझकर कहो, जिन्हें सारा जगत जाने तो भी आपको कोई विकल्प न हो, भय न हो; बल्कि जितने अधिक लोग जाने, उतनी ही अधिक प्रसन्नता हो ।
यदि मन शंकाशील हो गया हो तो द्रव्यानुयोग का विचार करने योग्य है, प्रमादी हो गया हो चरणानुयोग का विचार करना योग्य है और कषायी हो गया हो तो प्रथमानुयोग (कथा-पुराण) को विषय वस्तु का विचार कर योग्य है और यदि जड़ हो गया हो तो करणानुयोग का विचार करना योग्य है। ऐसा करने से सबके समाधान सुलभ हो जायेंगे।
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विधि का विधान अटल है, उसे कोई टाल नहीं सकता। जो घटना या कार्य जिस समय, जिसके निमित्त से, जिस रूप में होना है; वह उसी समय, उसी के निमित्त से, उसी रूप में होकर ही रहता है। उसे टालना तो दूर, आगे-पीछे भी नहीं किया जा सकता; बदला भी नहीं जा सकता। क्षेत्र से क्षेत्रान्तर भी नहीं किया जा सकता।
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जो व्यक्ति राष्ट्र सेवा एवं समाज सेवा के नाम पर ट्रस्ट बनाकर अपने काले धन को सफेद करते हैं और उस धन से एक पंथ अनेक काज साधते हैं, उनकी तो यहाँ बात ही नहीं है; उनके वे भाव तो स्पष्टरूप से अप्रशस्त भाव ही हैं। सचमुच देखा जाय तो वे तो अपनी रोटियाँ सेंकने में ही लगे हैं। वे स्वयं ही समझते होंगे कि सचमुच वे कितने धर्मात्मा या पापी हैं; पर जो व्यक्ति अपने धन का सदुपयोग सचमुच लोक कल्याण की भावना से जनहित में ही करते हैं, उसके पीछे जिनका यश प्रतिष्ठा कराने का कतई / कोई अभिप्राय नहीं होता, उन्हें भी एकबार आत्म-निरीक्षण तो करना ही चाहिए कि उनके इन कार्यों में कितनी धर्मभावना है और कितना अशुभभाव
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शलाका पुरुष भाग-२ से
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वर्तता है। आँखमींचकर अपने को धर्मात्मा, दानवीर आदि माने बैठें रहना कोई बुद्धिमानी नहीं है।
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जिन्हें देखकर सुनकर हमारा मन मुदित होता है, चित्त चमत्कृत हो जाता है, हृदय में आनन्द की उर्मियाँ हिलोरे लेने लगती हैं, वाणी से वाह ! वाह! के स्वर फूट पड़ते हैं; उन आनन्ददायक मानवीय मानसिक वाचिक एवं कायिक अभिव्यक्तियों को ही तो लोकभाषा में कला कहा जाता है।
प्रत्येक भला काम सबसे पहले हमें अपने घर से ही प्रारंभ करना चाहिए।
धर्म करने की उम्र कोई निश्चित नहीं होती, धर्म तो हमारे जीवन का अभिन्न अंग होना चाहिए। धर्माचरण में सदैव तत्पर रहना चाहिए। क्या पता कब क्या हो जाये?
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जहाँ स्व-पर के भेदज्ञान से शून्य अज्ञानी मरणकाल में अत्यन्त संक्लेशमय परिणामों से नरकादि गतियों में जाकर असीम दुःख भोगता है, वहीं ज्ञानी मरणकाल में वस्तुस्वरूप के चिन्तन से साम्यभावपूर्वक देह विसर्जित करके मरण को 'समाधिमरण' में एवं मृत्यु को 'महोत्सव' में परिणत कर उच्चगति प्राप्त करता है।
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वीतरागी देव के पवित्र गुणों का स्मरण करता है, उसका मलिन मन स्वतः निर्मल हो जाता है, उसके पापरूप परिणाम स्वतः पुण्य व पवित्रता में पलट जाते हैं। अशुभ भावों से बचना और मन का निर्मल हो जाना ही जिनपूजा का, जिनेन्द्रभक्ति का सच्चा फल है।
ज्ञानी धर्मात्मा लौकिक फल की प्राप्ति के लिए पूजनभक्ति नहीं करते ।