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________________ शलाका पुरुष भाग-२से १५७ १५६ यदिचूक गये तो नहीं है। जो बात माता-पिता एवं गुरुजनों से भी नहीं कही जा सकती - ऐसी गुप्त से गुप्त बात मित्र को बता दी जाती है। सच्चा मित्र अपने मित्र के हित में अपने प्राणों की भी परवाह नहीं करता हुआ कार्यसिद्ध कर देता है। इस जगत में सब कुछ क्षणिक है, नाशवान है। हमारा यह शरीर भी तो नाशवान है, फिर इसके रूप का यह अहंकार क्यों? मैंने अब तक इस शरीर के लिए सब कुछ किया, अपने लिए कुछ नहीं किया। अब मैं अपने आत्मा के लिए ही करूंगा। गन्ध और वर्णयुक्त होने के कारण पुद्गलात्मक है। मैं सुखी हूँ, मैं दुःखी हूँ इत्यादि के द्वारा जिसका वेदन होता है, वह चैतन्य गुणयुक्त जीव नाम का पदार्थ विद्यमान है। इसका स्वसंवेदन से अनुभव होता है और बुद्धिपूर्वक क्रिया देखी जाती है। इस हेतु से अन्य पुरुषों के शरीर में भी आत्मा है, यह अनुमान से जाना जाता है। इसीलिए आत्मा नाम का पृथक पदार्थ है। साथ ही परलोक का अस्तित्व भी है, क्योंकि अतीत जन्म का स्मरण देखा जाता है। चक्रवर्ती जैसे सातिशय पुण्य के धनी जीवों को भी पापोदय के निमित्त से प्रतिकूलता के प्रसंग बन सकते हैं, अतः हमें प्रतिकूलताओं की परवाह न करते हुए अपने स्वस्थ जीवन में ही आत्मकल्याण में लगकर मानव जीवन को सफल कर लेना चाहिए। बाह्य धनादि के संग्रह करने में अपना अमूल्य समय बर्बाद नहीं करना चाहिए। बलभद्र - शलाकापुरुषों में बलभद्रों का भी स्थान है। इन्हें बलदेव और हलधर भी कहते हैं। बलभद्र, नारायण के बड़े भ्राता होते हैं। इन दोनों में प्रगाढ़ स्नेह रहता है, जो कि लोक विख्यात है। सभी बलभद्र होनेवाले जीव तपश्चरण कर पहले देव पर्याय प्राप्त करते हैं और फिर वहाँ से आकर बलभद्र बनते हैं। ये अतुल पराक्रमी, रूप सम्पन्न और यशस्वी होते हैं। नारायण का चिर वियोग होने पर छह माह बाद किन्हीं निमित्तों को पाकर इन्हें जीवन की यथार्थता का बोध होता है, जिससे यह मुनि बनकर आत्मसाधना करते हैं। इस काल के नो बलभद्रों में आठ ने मोक्ष प्राप्त किया और एक स्वर्ग गये। जो चक्रवर्ती विरागी होकर चक्रवर्ती पद का त्याग कर मुनि नहीं होता, चक्रवर्ती पद में ही मरण होने के कारण वह नियम से नरक ही जाता है; क्योंकि चक्रवर्ती पद में रहते हुए उसे देश या राष्ट्र के संचालन में उसकी व्यवस्था में बहुत आरंभजनित पापों की प्रवृत्ति होती है, बहुत परिग्रह तो है ही तथा आगम का यह वचन है कि “बहत आरंभ और बहत परिग्रह नरक आयु बंध का कारण है।" अतः हम यथा संभव अपने जीवन में ही आरंभ और परिग्रह को सीमित करें तथा उपलब्ध परिग्रह में भी मूर्छा (ममत्व) कम करें ताकि दुर्गति न हो। वैरभाव तो कभी किसी के साथ लम्बाना ही नहीं चाहिए। अतः तत्त्वज्ञान के बल से क्रोध को ही शमित कर देना चाहिए, उसे बैर नहीं बनने दें; क्योंकि वैर अनेक भवों तक पीछा नहीं छोड़ता। जगत में जितने जीव हैं, उनकी होनहार के अनुरूप उतनेरूप, उतने ही प्रकार की उनकी पुण्य-पापरूप चित्र-विचित्र परिणतियाँ हैं। अज्ञानदशा में हुई अपनी-अपनी परिणति का फल तो सभी को भोगना ही पड़ता है। तीर्थंकर होनेवाले जीवों ने भी अज्ञानदशा में अपने-अपने पुण्य के फल में नरक, निगोद की पर्यायें प्राप्त की और अनन्तकाल तक असह्य अनन्त दुःख सहन किए। कहावत है कि 'दीवारों के भी कान होते हैं। अतः ऐसी बात कहना ही नहीं चाहिए जिस बात को किसी से छिपाने का विकल्प हो और प्रगट इस संसार में जो पंचभूतों का समूह दिखाई देता है वह स्पर्श, रस, (७९)
SR No.008389
Book TitleYadi Chuk Gaye To
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahavir Prasad Jain
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2007
Total Pages85
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size276 KB
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