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________________ १५४ यदिचूक गये तो निष्फल उपाय किस बुद्धिमान को विषाद युक्त नहीं करता। कोई कितना भी समझदार क्यों न हो, तत्काल विषाद तो हो ही जाता है। भूमिकानुसार जब तक जितने कषायकण अथवा तत्संबंधी राग विद्यमान है, तदनुसार यत्किंचित् दुःख तो हो ही जाता है। शलाका पुरुष भाग-२से १५५ चौथे, कुछ लोग अहितकर और अप्रिय बोलकर मन ही मन खुश होते हैं; उन्हें अधमाधम मानवों की श्रेणी में गिना जाता है। इन चार प्रकार के वचनों में अन्तिम दो प्रकार के वचनों को छोड़कर प्रथम दो प्रकार के वचनों से पात्र की पात्रता के अनुसार हित का उपदेश दिया जा सकता है। -- इस संसार में कितने ही प्राणी ऐसे हैं कि जिनकी आयु बीच में ही छिद जाती है और कितने ही ऐसे हैं कि जो जितना आयु का बन्ध करते हैं, उतने काल तक जीवित रहते हैं, बीच में उनका मरण नहीं होता । यदि तुम मृत्यु से सदा के लिए छुटकारा पाना चाहते हो तो इस व्याधि के मन्दिर शरीर से और प्रिय स्त्री-पुत्र आटे से ममत्व को छोड़ो और जिनदीक्षा धारण कर लो। कामी विषयासक्त मनुष्यों को अच्छे-बुरे के अन्तर का विवेक कहाँ होता है? ऐसा जान पड़ता है कि वह चक्रवर्ती अपने चक्रवर्ती के वैभव और भोगोपभोगों में विवेकशून्य हो गया है। अस्तु स्वर्ग और मोक्ष लक्ष्मी का लाभ भी उसे अभी लाभ - सा नहीं लगता। -- "शूरवीरता और साहस से सुशोभित क्षत्रिय पुत्रों का यौवन यदि दुःसाध्य कार्य में पिता का मनोरथ सिद्ध नहीं करता तो ऐसे यौवन को धिक्कार है। वह बकरे के गले में लटकते स्तनों के समान निरर्थक है। जन्म और यौवन का अस्तित्व तो सर्वसाधारण जीवों के जीवन में भी होता है। उसमें हमारी क्या विशेषता है। अतः आप हम लोगों को साहसपूर्ण कार्य सौंपिए, जिसमें हम अपने प्राप्त यौवन और बल को सार्थक कर सकें। - ऐसे विचार सगर चक्रवर्ती ने व्यक्त किए। ___ "यह शरीर अशुचि है, विनाशीक है, मलमूत्र का थैला है, कीकस वसादि से मैला है, हाड का पिंजरा है, घिनावना है, क्षय हो जानेवाला है। अतः अब मुझे इसकी आवश्यकता नहीं है, क्योंकि ये सब अकल्याणकारी हैं। यह यौवन इन्द्र धनुष के समान नश्वर है" - ऐसा सोचकर सगर चक्रवर्ती ने भागीरथ पुत्र को राज्य देकर दृढ़धर्म केवली के समक्ष दीक्षा धारण कर ली। नीति कहती है कि विवेकी पुरुष घर में भी तभी तक रहते हैं, जब तक विरक्त होने के कोई बाह्य और आभ्यन्तर कारण नहीं मिलते। काललब्धि आने पर तो प्रतिदिन घटनेवाली घटनायें भी निमित्त बन जाती हैं। वचन चार प्रकार के होते है, प्रथम - कुछ वचन तो हित-मित एवं प्रिय होते हैं, जिन्हें सर्वोत्तम कहा जाता है। ये अधिकांश मुनि भूमिका में ही संभव होते हैं। दूसरे, कुछ वचन हितकर होते हुए भी अप्रिय या कर्णकटु होते हैं। इन वचनों का प्रयोग माता-पिता और गुरुजन करते हैं, इनका प्रयोग मध्यम श्रेणी के लोग करते हैं। तीसरे प्रकार के वचन सुनने में तो प्रिय लगते हैं, प्रयोग में अहित कर सिद्ध होते हैं। ऐसे वचन चाटुकार लोग या स्वार्थी लोग करते हैं। ऐसे लोग सोचते हैं कि हम कठोर बोलकर बुरे क्यों बनें, अपने हित-अहित की बात वे स्वयं सोचें। हमारा काम बनना चाहिए, उसकी वह जाने । ऐसे लोग अधम व्यक्तियों की श्रेणी में गिने जाते हैं और अन्य प्राणियों के कार्यसिद्धि करने में अर्थात् परोपकार करने में ही प्रायः महापुरुषों को सन्तोष होता है; क्योंकि दूसरों का भला करने से बढ़कर कोई पुण्य कार्य नहीं है और दूसरों को पीड़ा पहुँचाने से बड़ी कोई पाप की प्रवृत्ति नहीं है। इस लोक में तथा परलोक में मित्र समान हित करनेवाला अन्य कोई
SR No.008389
Book TitleYadi Chuk Gaye To
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahavir Prasad Jain
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2007
Total Pages85
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size276 KB
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