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शलाका पुरुष भाग-२से
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यदिचूक गये तो यहाँ तक कि उसमें मुनि-आर्यिकाओं, श्रावक-श्राविकाओं, देवदेवांगनाओं के साथ-साथ पशुओं के बैठने की भी व्यवस्था है और वे श्रवण करते हैं।
महावीर हैं, सांप और मदोन्मत्त हाथियों को काबू में करने के कारण नहीं। सांपों और हाथियों को तो सपेरे और महावत भी काबू में कर लेते हैं, इसमें अनन्त बल के धनी महावीर से जोड़ना उनकी महावीरता का मूल्यांकन कम करना ही होगा।
जो व्यक्ति अरहंत भगवान के वीतरागी-सर्वज्ञ स्वभाव को भली प्रकार जान लेता है, पहिचान लेता है, वह अपने आत्मा को भी जान लेता है, पहिचान लेता है और उसका मोह (मिथ्यात्व) अवश्य नष्ट हो जाता है। वह अन्तरोन्मुखी पुरुषार्थ द्वारा चारित्र-मोह का भी क्रमशः नाश करता जाता है और कालान्तर में जाकर वह भी वीतरागी बन जाता है। उसके समस्त मोह-राग-द्वेष नष्ट हो जाते हैं। वह लोकालोक का ज्ञाता हो जाता है, वह स्वयं वीतरागी बन जाता है।
जगत के जीवों का यह स्वभाव ही है कि वे जिस पर्याय में जाते हैं, वहीं रम जाते हैं। विष्ठा का कीड़ा विष्ठा में ही रम जाता है, दुःखद पर्याय से भी मुक्त नहीं होना चाहता।
हे प्रभो! जिसके क्षयोपशम ज्ञान में वीतरागता और सर्वज्ञता का सच्चा स्वरूप आ गया; वह निश्चित रूप से भविष्य में पूर्ण वीतरागता और सर्वज्ञता को प्राप्त करेगा। सर्वज्ञ का ज्ञान तो अनन्त महिमावंत है ही, किन्तु जिसके ज्ञान में सर्वज्ञता का स्वरूप आ गया, उसका ज्ञान भी कम महिमावाला नहीं है; क्योंकि वह सर्वज्ञता प्राप्त करने का बीज है। सर्वज्ञता की श्रद्धा बिना पर्याय में सर्वज्ञता प्रगट नहीं होती।
यह यौवन बुढ़ापे के द्वारा ग्रसने वाला है, आयु प्रतिक्षण क्षीण हो रही है, यह सुन्दर शरीर नवमल द्वारों से दुर्गन्धित और मलिन है, इसके एक-एक रोम में ९६-९६ रोग हैं, सचमुच देखा जाय तो यह देह व्याधियों का ही घर है। जन्म-जरा-मृत्यु आदि १८ दोषों से युक्त है। अशुचि भावना में तो स्पष्ट कहा है कि - यह देह मांस, खून, पीव और मलमूत्र की थैली है, हड्डी, चर्बी आदि से अत्यन्त मैली है, इस देह में नौ द्वारों से घृणास्पद मल प्रवाहित होता है। हे भाई! तू ऐसी देह से प्रेम क्यों करता है? इससे अपने मोक्षमार्ग को साध कर इसे सफल क्यों नहीं करता?
ये घर, द्वार, गोधन, हाथी, घोड़ा, नौकर-चाकर, यह युवावस्था तथा ये इन्द्रियों के भोग सब इन्द्र धनुष और बिजली के समान क्षणिक हैं, नाशवान हैं; अत: इनसे राग तोड़ और आत्मा से प्रीति जोड़!
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"कोई भी कार्य काललब्धि आने पर भवितव्यतानुसार ही होता है, उस काल में तदनुकूल पुरुषार्थपूर्वक उद्यम भी होता है तथा अनुकूल निमित्त भी उपस्थित रहता ही है। मेरे अभाव के कारण प्रभु की वाणी रुकी और मेरे आने के कारण खिरी, यह दोनों बातें मात्र उपचार से ही कही जा सकती हैं। वस्तुतः वाणी के खिरने का काल यही था, मेरे सद्धर्म की प्राप्ति का काल भी यही था। दोनों का सहज संयोग हो जाने पर यह उपचार से कहा जाने लगा कि मेरे कारण भगवान की वाणी खिरी।" - ऐसा गौतम गणधर ने कहा।
वे महावीर तो अभी भी हैं; किन्तु अपने अनन्तवीर्य गुण के कारण
___ संसार में इष्ट वस्तुओं का वियोग और अनिष्ट वस्तुओं का संयोग सदैव होता ही रहता है। जिनके निमित्त से कुगति का कारण आर्तध्यान होता रहता है। अतः तपरूपी अग्नि के द्वारा कर्मों को जलाकर सुवर्ण के समान अविनाशी शुद्धि एवं अव्याबाध सुख को प्राप्त करें।
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