SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 76
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ शलाका पुरुष भाग-२से १५१ समान आत्मानुभूति प्राप्त कर मुक्ति का सिलसिला आरम्भ तो हो ही सकता है। १५० यदिचूक गये तो परमेश्वर की ओर भी किसी आशा-आकांक्षा में झांकना निरर्थक है। तेरा प्रभु तू स्वयं है। तू स्वयं ही अनन्त सुख का भण्डार है, सुख स्वरूप है, सुख ही है तथा पंचेन्द्रिय के विषयों में सुख है ही नहीं। चक्रवर्ती की संपदा पाकर भी यह जीव सुखी नहीं हो पाया। ज्ञानी जीवों की दृष्टि में चक्रवर्ती की सम्पत्ति की कोई कीमत नहीं है, वे उसे जीर्ण तृण के समान त्याग देते हैं और अन्तर में समा जाते हैं। अन्तर में जो अनन्त आनन्दमय महिमावंत परम पदार्थ विद्यमान है, उसके सामने बाह्य विभूति की कोई महिमा नहीं। "सर्व समाधान कारक तो अपना आत्मा ही है। दूसरों को देखना, सुनना आदि तो निमित्त मात्र है। मुनिराजों की शंकाओं का समाधान उनके अंतर से स्वयं हुआ, वे उस समय मुझे (सन्मति को) देख रहे थे; अतः मुझ पर आरोप आ गया। ज्ञान तो अन्तर में से आता है, किसी पर-पदार्थ में से नहीं" - ऐसा बालक वर्द्धमान ने कहा। ___ मैं यदि 'सन्मति' हूँ तो अपनी सद्बुद्धि के कारण, तत्वार्थों के सही निर्णय करने के कारण हूँ, न कि मुनिराजों की शंका के समाधान के कारण। यदि किसी जड़ पदार्थ को देखने से किसी को ज्ञान हो जावे तो क्या वह जड़ पदार्थ भी 'सन्मति' कहा जायेगा? शुभाशुभभाव रूप (पुण्य-पाप) का फल चर्तुगति का भ्रमण ही है। शुभाशुभभाव के अभावरूप जो वीतरागभाव है, वही धर्म है; वही सुख का कारण है। वीतराग भाव की उत्पत्ति आत्मानुभूति पूर्वक होती है। अत: प्रत्येक आत्मार्थी को वीतरागभाव की प्राप्ति के लिए आत्मानुभूति अवश्य प्राप्त करना चाहिए। जैनदर्शन का मार्ग नर से नारायण बनने तक का ही नहीं, अपितु आत्मा से परमात्मा बनने का है, शेर से सन्मति बनने का है, पशु से परमेश्वर बनने का है। काहा पूर्वभवों की चर्चा हमें आश्वस्त करती है कि अपनी वर्तमान दशा मात्र को देखकर घबड़ाने की आवश्यकता नहीं है। जब भगवान महावीर की आत्मा को शेर जैसी पर्याय में आत्मानुभूति प्राप्त हो सकती? तो हमें क्यों नहीं हो सकती? यदि इसमें दस-पाँच भव भी लग जाएँ तो इस अनादि-अनंत संसार में दस-पाँच भव क्या कीमत रखते हैं। -- "पंचमकाल में तो मुक्ति होती ही नहीं; अतः अभी तो शुभभाव करके स्वर्गादि प्राप्ति का प्रयत्न करना चाहिए।" - ऐसा सोचकर निराश न हों भले ही मुक्ति इस काल में, इस क्षेत्र में एवं इस भव में न हो; पर शेर के एक तो आत्म-साधनारत वीतरागी संतों के ज्ञान में अंतरोन्मुखी वृत्ति के कारण बाह्य अनुकूल-प्रतिकूल संयोग आते ही नहीं; यदि आते भी हैं तो उनके चित्त में कोई भंवर पैदा नहीं करते, मात्र ज्ञान का ज्ञेय बनकर रह जाते हैं; क्योंकि वे तो अपनी और पर की परिणति को जानते-देखते हुए प्रवर्तते हैं। -- प्रत्येक द्रव्य की पूर्ण स्वतंत्र सत्ता है, उसका भला-बुरा परिणमन उसके आधीन है, उसमें पर का कोई भी हस्तक्षेप नहीं है तथा जिसप्रकार आत्मा अपने स्वभाव का कर्ता-भोक्ता स्वतंत्र रूप से है, उसीप्रकार प्रत्येक आत्मा अपने विकार का कर्ता-भोक्ता भी स्वयं है। इस रहस्य को गहराई से जानने वाले महावीर उससे सर्वथा निरीह ही रहे। -- -- तीर्थंकर ही धर्मसभा में राजा-रंक, अमीर-गरीब, गोरे-काले सब मानव एक साथ बैठकर धर्मश्रवण करते हैं। उनकी धर्मसभा में प्रत्येक प्राणी को जाने का अधिकार है। छोटे-बड़े और जाति-पाति का कोई भेद नहीं है। (७६)
SR No.008389
Book TitleYadi Chuk Gaye To
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahavir Prasad Jain
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2007
Total Pages85
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size276 KB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy