SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 75
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १४८ शलाका पुरुष भाग-२से १४९ यदिचूक गये तो अनजाने में भी हम किसी के प्राण पीड़ित न करें। अपने जरा से स्वाद के लिए हिंसा से उत्पन्न आहार ग्रहण न करें, अपनी पूरी दिनचर्या में अहिंसक आचरण ही करें। में अरहंत भगवान ने ऐसा कहा कि “पूजा व्रतादि के शुभराग से पुण्यबन्ध होता है और मोह रहित जो वीतरागभाव है वह धर्म है, उसके द्वारा मोक्ष की प्राप्ति होती है।" इस संसार में जीव जब तक आत्मज्ञान नहीं करता तब तक उसे ऐसे जन्म-मरण होते ही रहते हैं। अतः अपने हित के लिए दुष्ट अज्ञानी जीवों का संग छोड़कर ज्ञानी-धर्मात्माओं का संग करना योग्य है। ऐसा अस्थिर संसार, ऐसे क्षणभंगुर संयोग... यह राजपाट, ये रानियाँ ये शरीरादि... सब संयोग इन मेघों की भाँति बिखर जाने वाले विनाशक हैं। अरे, ऐसे अस्थिर इन्द्रिय विषयों में दिन-रात लगे रहना शोभा नहीं देता। यह शरीर नाशवान है और ये भोग भवरोग को बढ़ाने वाले हैं। अतः जिसे अपना हित करना हो उसे इन भोगों की लालसा में जीवन गँवाना उचित नहीं है। जिसप्रकार यह मेघ रचना क्षणभर में बिखर गई, उसीप्रकार ये भोगों के क्षणिक संयोग नाशवान हैं, अतः हमें अविलम्ब इस संसार को छोड़कर मुनि मार्ग अपना कर मुक्ति पाने का प्रयत्न करना चाहिए। जिनेन्द्र देव के वीतरागी जिनबिम्ब आत्मा के शुद्धस्वरूप के प्रतिबिम्ब हैं और आत्मा का शुद्धस्वरूप लक्ष्य में आने पर मोह का नाश होकर सम्यग्दर्शन प्राप्त होता है। नन्दीश्वर द्वीप में मनुष्य नहीं जा सकते, वहाँ देव ही जाते हैं। जिसप्रकार आत्मा का शुद्धस्वभाव शाश्वत अनादि का है, उसीप्रकार वहाँ के प्रतिबिम्ब भी शाश्वत अनादि के हैं। वे भले अचेतन हों; किन्तु चैतन्य गुणों के स्मरण का निमित्त हैं। वे मूक जिन प्रतिमाएँ ऐसा उपदेश देती हैं कि संकल्प-विकल्प छोड़कर तुम अपने स्वरूप में स्थिर हो जाओ। जिसप्रकार चिन्तामणि के चिन्तन द्वारा इच्छित वस्तु की प्राप्ति होती है, उसीप्रकार तुम जिस स्वरूप में प्रभु का ध्यान करोगे उसी स्वरूप में तुम होंगे। अरे, जिसे जिनदेव के प्रति भक्ति नहीं है वह तो संसार समुद्र के बीच विषय-कषाय रूपी मगर के मुख में ही पड़ा है। क्षमावन्त आत्मा के संसर्ग से नाग जैसे विषधर जीव भी क्रोध छोड़कर क्षमावान बन जाते हैं और शरीर के टुकड़े कर देनेवाले के प्रति भी क्रोध न करके क्षमाभाव से शरीर त्यागकर देव हो जाते हैं। "इस समस्त बाह्य वैभव की अपेक्षा हमारा अनन्त चैतन्य वैभव भिन्न प्रकार का है, वही सुख का दातार है, बाह्य का कोई वैभव सुख देने वाला नहीं है, उसमें तो आकुलता है। पुण्य से प्राप्त बाह्य वैभव तो अल्पकाल ही रहनेवाला है और हमारा आत्म वैभव अनन्तकाल तक साथ रहेगा। सम्यग्दर्शनरूपी सुदर्शनचक्र द्वारा मोह को जीतकर मैं मोक्ष साम्राज्य प्राप्त करूँगा, वही मेरा सच्चा साम्राज्य है" ज्ञानी ऐसा संकल्प करता है। ___ “मुझे जगत के सामान्य मनुष्यों की भाँति संयम रहित काल नहीं गंवाना है। ऋषभादि जिनवर जिस मार्ग पर चले उसी मार्ग पर मुझे जाना है, इसलिये मैं दीक्षा लूँगा और आत्मसाधना पूर्ण करूँगा।" इसप्रकार भव से विमुख और मोक्ष के सन्मुख हुए पार्श्वकुमार वैराग्य भावना भाने लगे। हे आत्मन् ! यह आत्मा ही स्वयं ज्ञान एवं सुखरूप है, सम्पूर्ण जगत में घूम-फिर कर देखा, परन्तु आत्मा के अतिरिक्त कहीं अन्यत्र सुख दिखायी नहीं दिया। आत्मा का सुख आत्मा में ही है, वह बाहर ढूँढ़ने से नहीं मिलेगा। आत्मा को जानने से ही आत्मसुख की प्राप्ति होती है। जिनशासन सुख पाने के लिए अन्यत्र भटकना आवश्यक नहीं है; क्योंकि अपना सुख अपने में ही है, पर में नहीं, परमेश्वर में भी नहीं; अतः सुखार्थी का
SR No.008389
Book TitleYadi Chuk Gaye To
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahavir Prasad Jain
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2007
Total Pages85
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size276 KB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy