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________________ १४६ यदि चूक गये तो में पड़ा है। जिसप्रकार पिंजरे में बन्द पक्षी दुःखी होता है अथवा खम्भे से बँधा हुआ गजराज दुःखी होता है, उसीप्रकार मोही जीव भवबन्धन में निरन्तर दुःखी एवं व्याकुल होता है। यह प्राणी मृत्यु से भयभीत होने पर भी उसी के कारणों की ओर दौड़ता है; उससे छूटने का प्रयत्न नहीं करता । रत्नत्रयधर्म का सेवन ही इस भव दुःख से छुड़ाकर मोक्षसुख देनेवाला है। इसी कारण ज्ञानी भव-तन-भोग से विरक्त होकर निज ज्ञायकतत्त्व में ही अपने चित्त को अनुरक्त करने दीक्षा ग्रहण में तत्पर होते हैं। -- लौकिकजन चमत्कारों और घटनाओं में अधिक रुचि रखते हैं, इसकारण जिनतीर्थंकरों का जीवन घटना प्रधान रहा और जिनके साथ लौकिक चमत्कार की घटनायें जुड़ गईं, वे बहुचर्चित हो गये या हो रहे हैं। जैसे कि - भगवान भरत और भगवान बाहुबली समानरूप से अरहन्त परमात्मा बने तो भी बाहुबली की बेलों और बांवियों ने उन्हें अधिक आकर्षक बना दिया; जबकि वे उनकी विशेषताओं की प्रतीक नहीं; बल्कि भरतजी की अपेक्षा कमजोरी की परिचायक हैं; क्योंकि भगवान बाहुबली को जिस उपयोग को आत्मा में लगाने में इतनी कठिन साधना करनी पड़ी; वही काम भरतजी ने अन्तर्मुहूर्त में उपसर्ग और परिषह सहे बिना ही कर लिया। यादव कुल में मूलतः हरिवंशीय महाराजा सौरी हुए। उनसे अन्धकवृष्णि और भोगवृष्णि ये दो पुत्र हुए। उनमें राजा अन्धक वृष्णि के दस पुत्र थे, जिनमें बाल तीर्थंकर नेमिकुमार के पिता सौरीपुर के राजा समुद्र विजय सबसे बड़े भाई थे और श्रीकृष्ण के पिता राजा वसुदेव सबसे छोटे भाई थे। दस भाईयों में ये दोनों ही सर्वाधिक प्रभावशाली, धीर-वीर और सर्वगुण सम्पन्न पुराण प्रसिद्ध पुरुष हुए। राजा समुद्र विजय की रानी शिवा देवी से वैशाख शुक्ला त्रयोदशी के दिन शुभ घड़ी में नेमिकुमार का जन्म हुआ। - ➖➖ नेमिकुमार और श्रीकृष्ण चचेरे भाई थे। राजा समुद्र विजय और वसुदेव (७४) शलाका पुरुष भाग-२ से १४७ - दोनों सहोदर न्यायप्रिय, उदार, प्रजावत्सल, धीर-वीर-गंभीर और अत्यन्त रूपवान, बलवान तथा शलाका पुरुषों के जनक थे। दिव्यध्वनि में जगत की अनादिनिधन, स्वतंत्र, स्वाधीन, अहेतुक, स्व-संचालित व्यवस्थाका ज्ञान कराया गया है। यह सृष्टि अहेतुक है अर्थात् किसी के द्वारा उत्पन्न नहीं हुई है, किसी ने इसे बनाया नहीं है। जीव स्वयं कर्म करता है, स्वयं उसका फल भोगता है, स्वयं अपनी भूल से संसार में घूमता है और स्वयं भूल सुधार कर मुक्त हो सकता है। कोई किसी का कर्त्ता-धर्ता नहीं है। ➖➖ यह अटल नियम है कि होनी को कोई टाल नहीं सकता, जब जिसके निमित्त से जो होना है, वही, तभी उसी के निमित्त से होकर रहता है, उसे इन्द्र और जिनेन्द्र भी आगे-पीछे नहीं कर सकते। -- -- -- दूसरों का अपकार करनेवाला पापी मनुष्य दूसरों का वध तो एक बार करता है, पर उसके फल में अपना वध जन्म जन्म में असंख्य बार करता है तथा अपना संसार बढ़ाता है। व्यक्ति दूसरे का अपकार तो किसी तरह भी नहीं कर सकता है; परन्तु ध्यान रहे, दूसरों को दुःखी करनेवाले को दुःख की परम्परा ही प्राप्त होती है। बहुत भले काम करने से भी यदि कभी / किसीका / जाने/अनजाने दिल दुःखाया हो, अहित हो गया हो अथवा अपने कर्तृत्व के झूठे अभिमान में पापार्जन हुआ हो तो वह भी बिना फल दिए नहीं छूटता। तीर्थंकर पार्श्वनाथ पर कमठ का उपसर्ग, आदि तीर्थंकर ऋषभमुनि को एक वर्ष तक आहार में अन्तराय इस बात के साक्षी हैं कि तीर्थंकर जैसे पुराण पुरुषों को भी अपने किए पूर्वकृत कर्मों का फल भोगना ही पड़ा था। अतः हमें इस बात का पूरा-पूरा ध्यान रखने की जरूरत है कि भूल-चूक से भी, जाने
SR No.008389
Book TitleYadi Chuk Gaye To
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahavir Prasad Jain
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2007
Total Pages85
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size276 KB
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