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________________ १४४ यदि चूक गये तो आत्मा का स्वभाव है और उसके ध्यान में जो अतीन्द्रिय शान्ति का वेदन होता है, वही सच्चा सुख है। आत्मतत्त्व स्वयं स्वतंत्र है; यह अनादिअनंत अपने उत्पाद-व्ययध्रुवस्वरूप में वर्तनेवाला है; ज्ञान और आनन्द उसका स्वभाव है, जो कि जीव के अतिरिक्त अन्यत्र नहीं है। प्रत्येक आत्मा अपने स्वकीय असंख्यात प्रदेश में रहकर प्रतिसमय जानता और परिणमता है। -- -- ज्ञानी आत्मा स्व-पर का भेदज्ञान करके पर से विभक्त अपने ज्ञानस्वरूप को जानता है और उसी में एकत्वरूप से परिणमता है; इसलिए हे जीवो! तुम भी भेदज्ञान करके रागरहित शुद्ध सम्यग्दर्शन- ज्ञान - चारित्ररूप मोक्षमार्ग में ही आत्मा को दृढ़रूप से परिणमित करो। सब अरहंत तीर्थंकर इसी विधि से मोक्ष को प्राप्त हुए हैं और तुम्हारे लिए भी मोक्ष का यही एक उपाय है। -- -- -- -- शुद्धस्वरूप में ही मोक्षमार्ग का समावेश है, राग का कोई अंश उसमें नहीं आत्मा के है। सम्यग्दर्शन - ज्ञान - चारित्ररूप शुद्धभाव से परिणमित आत्मा स्वयं ही मोक्ष का कारण है और स्वयं ही मोक्षरूप हैं। वैयावृत्त तप के संबंध में विचारणीय बात यह है कि जब यह अंतरंग तप है तो इसका सीधा संबंध आत्मा के परिणामों से होना चाहिए; शारीरिक सेवा से नहीं। हाँ, वेदना आदि के कारण जब कोई साधु या श्रावक विचलित होता है; तब साधर्मी उसके परिणामों के स्थितिकरण के लिए शारीरिक अनुकूलता भी पद के अनुसार निर्दोष विधि से करते हैं। इस तप का वस्तुतः तो आत्मा के परिणामों से ही संबंध है । स्वस्थ अवस्था में शरीर की मालिश और पग चप्पी करना / कराना वैयावृत्त तप नहीं है । जब-जब भी साधुओं को शारीरिक कष्ट होने के कारण सेवा कराने का विकल्प मन में आये, औषधि प्राप्त करने का भाव मन में आये तो तुरन्त (७३) शलाका पुरुष भाग-२ से १४५ तत्त्वज्ञान के बल से वे उस उपसर्ग या परिषह को जीतें। सेवा कराने का मन में सदैव निषेध वर्ते तो उस इच्छा निरोध का भाव वैयावृत्त रूप अन्तरंग तप संज्ञा को प्राप्त होता है; सेवा कराने का भाव एवं सेवा कराना तप नहीं । श्रावकजन साधुओं के प्राकृतिक / अप्राकृतिक परिषह उपसर्ग या रोगादिजनित पीड़ा को देखकर पद के योग्य परिचर्या करते हैं तो उन्हें पुण्यबंध होगा; क्योंकि वह साधु-समाधि भावना है; वैयावृत्य भावना है। तप में तो इच्छाओं का निरोध अनिवार्य है और तप साधु का मूल गुण है। उससे श्रावक का क्या संबंध? -- -- भगवान कोई अलग नहीं होते। सही दिशा में पुरुषार्थ करने से प्रत्येक जीव भगवान बन सकता है। स्वयं को जानो, स्वयं को पहचानो और स्वयं में समा जाओ; भगवान बन जावोगे । भगवान जगत का कर्ता हर्ता नहीं, वह तो समस्त जगत का मात्र ज्ञाता दृष्टा है। जो समस्त जगत को जानकर उससे पूर्ण अलिप्त (वीतराग) रह सकें अथवा पूर्णरूप से अप्रभावित रहकर जान सकें, वही भगवान हैं। जो कार्य मात्र भाग्य के आधीन है, होनहार पर निर्भर है, उसकी चिन्ता करना व्यर्थ है। यह जीवस्वभाव से स्वयं सुख का निधान है, परिपूर्ण आनन्दघन आत्मा है, चैतन्य सम्राट है; तथापि निजनिधि को भूलकर, विषयों का भिखारी होकर चारों गति में सुख की भीख माँगता हुआ भटक रहा है; यदि यह सुख के सागर भगवान आत्मा को अन्तर्मुख दृष्टि से देखे तो स्वाधीन सुख का अनुभव हो । -- -- जीव स्वयं ही मोह द्वारा स्वयं को बन्धन में बाँधकर संसाररूपी कारागृह
SR No.008389
Book TitleYadi Chuk Gaye To
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahavir Prasad Jain
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2007
Total Pages85
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size276 KB
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