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________________ १४२ यदि चूक गये तो से वह कर्मफल का भोक्ता नहीं है, अपने स्वाभाविक सुख का ही भोक्ता है। पूर्व पर्याय में जीव शुभाशुभ कर्म को करता है और उत्तर पर्याय में अथवा दूसरे जन्म में उसके फल को भोगता है; इसलिए पर्याय अपेक्षा से देखने पर जो करता है, वही नहीं भोगता और द्रव्य - अपेक्षा से देखने पर जिस जीव ने कर्म किए, वही जीव उनके फल को भोगता है। -- - मनुष्य भव के ये दुर्लभ दिन विषय-भोगों में गंवा देना चिन्तामणि को समुद्र में फैंकने के समान है; अतः बचपन से ही धर्म की साधना कर्तव्य है । जीवों का संसार अनादि अनन्त है, अज्ञानी जीव उसका पार नहीं पा सकते; परन्तु भव्यजीव आत्मज्ञान द्वारा अनादि संसार का भी अन्त कर देते हैं। जो रत्नत्रयरूपी धर्म नौका में नहीं बैठते वे अनंतबार संसार - समुद्र में डूबते हैं; परन्तु जो आत्मज्ञान करके एकबार धर्म नौका में बैठ जाते हैं। वे भव समुद्र को पार कर मोक्षपुरी में पहुँच जाते हैं। इसलिए मोक्षार्थी जीव को भव समुद्र से पार होने के लिए अवश्य धर्म का सेवन करना चाहिए। -- ग्रैवेयक देवों के देवियाँ नहीं होतीं, तथापि अन्य देवों की अपेक्षा अत्यधिक सुख वहाँ है। इससे सिद्ध है कि सुख विषयों में नहीं होता । -- -- -- जो उपयोग को निज परमात्मा में एकाकार करके बैठे हों, बाह्य उपद्रव उनका क्या बिगाड़ सकते? परमात्मतत्त्व में उन उपद्रव्यों का प्रवेश ही कहाँ है ? जिसप्रकार बिजली की तीव्र गड़गड़ाहट भी मेरू पर्वत को हिला नहीं सकती, उसीप्रकार देवियों की रागचेष्टा उन महात्मा के मन मेरू को किंचित् भी डिगा नहीं सकीं। अंतर्मुख उपयोग में मात्र आत्म प्रकाशन है, आत्मा स्वयं ही ज्ञाता और स्वयं ही ज्ञेय इसप्रकार ज्ञेय-ज्ञायक की अभिन्नता है । उस समय (७२) शलाका पुरुष भाग-२ से १४३ उपयोग में परज्ञेय नहीं होता; क्योंकि साधकदशा में उपयोग स्व में तथा पर में दोनों में एकसाथ नहीं लगता; एकसमय एक में ही उपयोग होता है। -- छद्मस्थ जीव अपने उपयोग को स्वज्ञेय में ही लगाता है। जिस भेदज्ञान द्वारा परवस्तु को पररूप जाना है वह ज्ञान उस पर्याय में वर्तता अवश्य है; परन्तु लब्धिरूप वर्तता है। उपयोग में तो आत्मा ही ज्ञाता और स्वयं ही ज्ञेय है । पर से भिन्नता का ज्ञान कराने के लिए कहीं पर सन्मुख उपयोग होना आवश्यक नहीं हैं। अपने शुद्ध आत्मा को स्वज्ञेयरूप से जाना और उसमें राग की या जड़ की मिलावट नहीं की, वही भेदज्ञान है। ज्ञानी को वह निरन्तर वर्तता है। प्रश्न - धर्मी का उपयोग अन्तर में हो तब तो उस अतीन्द्रिय उपयोग में इन्द्रिय विषय छूट गये हैं; परन्तु जब उसी धर्मी का उपयोग बाह्य में हो और इन्द्रियज्ञान हो, तब उस बाह्य उपयोग के समय क्या उसे मात्र इन्द्रियज्ञान ही होता है अथवा अतीन्द्रिय ज्ञान भी होता है? उत्तर - धर्मी को बाह्य उपयोग के समय इन्द्रिय ज्ञान होता है तथा उसे उस पर्याय में अतीन्द्रियज्ञान नहीं है, तथापि उसी पर्याय में पहले जो आत्मज्ञान किया है, उसकी धारणा वर्तती है, इसलिए अतीन्द्रियज्ञान का परिणमन लब्धिरूप से चल सकेगा। इसलिए अतीन्द्रियज्ञान तथा अनंतानुबंधी कषाय के अभावरूप शान्ति, सम्यक् श्रद्धा आदि इन्द्रियातीत शुद्धभाव धर्मी की पर्याय में सदा वर्तते ही हैं और उन भावों द्वारा ही धर्मी जीव की सच्ची पहिचान होती है। यदि बाह्य विषयों में सुख होता तो चक्रवर्ती के समक्ष तो सर्वोत्कृष्ट भोगोपभोग विद्यमान थे, फिर उन्हें त्याग कर वे वनवासी मुनि क्यों होते ? इसलिए निश्चित होता है कि बाह्य सामग्री में, विषयभोगों में या उनके संग में कहीं सुख है ही नहीं, सुख तो चैतन्यस्वरूप की अनुभूति में ही है। सुख
SR No.008389
Book TitleYadi Chuk Gaye To
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahavir Prasad Jain
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2007
Total Pages85
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size276 KB
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