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________________ १४० यदि चूक गये तो मोक्षमार्गरूप धर्म की मुख्य उपासना तो निर्ग्रन्थ मुनिवरों को होती है और उसके एक अंश की उपासना श्रावक गृहस्थ को होती है। उस मुनिधर्म या श्रावक धर्म दोनों में सम्यग्दर्शन तो मूलभूत होता ही है। जीव-अजीवादि नवतत्त्वों के स्वरूप का ज्ञान और उसमें शुद्ध द्रव्य-पर्यायरूप जीवतत्त्व की अनुभूतिरूप श्रद्धान सम्यग्दर्शन है। धन्य हैं वे व्यक्ति जो जिनदर्शन करके निजदर्शन कर लेते हैं और उनके बताये मार्ग का अनुसरण करते हैं। प्रभो! हमारा वह दिन कब आयेगा जब हम आपके आदर्शों का अनुसरण करेंगे। हम उस दिन की प्रतीक्षा कर रहे हैं और यह भावना भाते हैं कि वह मंगलमय दिन हमें शीघ्र प्राप्त हो, जब हम आपका अनुसरण करें। भोगभूमि में जीवों की संयमदशा नहीं होती। हाँ, सम्यग्दर्शन हो सकता है। कोई जीव मनुष्य आयु का बंध करके क्षायिक सम्यक्त्व प्राप्त करे तो वह भी भोगभूमि में उत्पन्न होता है तथा आत्मज्ञान के बिना भी पात्रदान देनेवाले अत्यन्त भद्रजीव भी भोगभूमि में उत्पन्न होते हैं। वहाँ किसी पशु का भय नहीं है, दिन-रात और ऋतुओं का परिवर्तन नहीं। अधिक शीत और अधिक उष्णता नहीं, जीव परस्पर दुःख नहीं देते। सब जीव शान्त एवं भद्र परिणामी होते हैं। वहाँ के सिंह आदि पशु मांसाहारी नहीं होते, अहिंसक होते हैं। वहाँ कीड़े-मकोड़े -मच्छर आदि तुच्छ जीव नहीं होते। सब जीव सर्वांग सुन्दर होते हैं। कभी-कभी ऋद्धिधारी मुनिवर भी उस भोगभूमि में पधारते हैं, उनके उपदेश से अनेक जीव आत्मज्ञान प्राप्त करते हैं। पापी जीवों का वहाँ अभाव है। वहाँ के सब जीव मरकर देवगति में ही जाते हैं, अन्य किसी गति में नहीं जाते। वहाँ कोई जीव दुराचारी नहीं होते; किसी को इष्ट वियोग नहीं होता। वहाँ के जीवों को निद्रा, आलस्य नहीं (७१) शलाका पुरुष भाग-२ से १४१ होता तथा वे वज्र शरीरी होते हैं। भोग-भूमियाँ जीवों को जैसा सुख है वैसा चक्रवर्ती को भी नहीं होता। जन्म के बाद २१, ३५ या ४४ दिन में ही पूर्ण हो जाते हैं मृत्यु के समय भी उन्हें कोई पीड़ा नहीं होती। यद्यपि वहाँ कल्पवृक्षों से सबप्रकार की भोग सामग्री उपलब्ध होती है; परन्तु वहाँ से मुक्ति नहीं होती, अतः ज्ञानी भोगभूमि के भोग की भावना नहीं भाते; उन्हें तो संयम धारण करने की प्रबल भावना होती है। आत्मा ज्ञानस्वरूप है, क्रोध उसका स्वभाव नहीं है। जीव का स्वभाव शान्ति एवं ज्ञानानन्दमय है। अन्तर में चैतन्य परमतत्त्व है। उस स्वतत्त्व की महिमा का चिन्तन करने से क्रोधादिभाव शान्त हो जाते हैं और सम्यक्त्व आदिभाव प्रगट होते हैं। जीवादि कोई पदार्थ न सर्वथा क्षणिक है और न सर्वथा नित्य है; यदि उसे सर्वथा क्षणिक माना जाये तो पुण्य-पाप का फल या बंध-मोक्ष आदि कुछ भी नहीं बन सकते। जीव सर्वथा नित्य भी नहीं है। एक ही जीव एक साथ नित्य तथा अनित्य ऐसे अनेक धर्मस्वरूप हैं, (आत्मा द्रव्य की दृष्टि से नित्य है, पर्याय की दृष्टि से देखें तो वह पलटता है ।) आत्मा के इन परस्पर विरोधी दो धर्मों का एक साथ होने को ही अनेकान्त कहते हैं। उसी प्रकार जीवादि तत्त्वों में जो अपने गुण-पर्याय हैं, उनसे वह सर्वथा अभिन्न नहीं है; वह तो अनेकान्त स्वरूप है। -- जीव को घट-पट - शरीर-कर्म आदि परद्रव्य का कर्ता उपचार से कहा जाता है, वास्तव में जीव उनका कर्ता नहीं है। अशुद्धनय से जीव अपने रागादि भावों का कर्ता है; परन्तु वह कर्तापना छोड़ने योग्य है, शुद्धनय से जीव क्रोधादि का कर्ता भी नहीं है, वह अपने सम्यक्त्वादि शुद्ध चेतन भावों का ही कर्त्ता है; वह उसका स्वभाव है। अशुद्धनय से जीव अपने किये हुए कर्मों का फल भोगता है, शुद्ध
SR No.008389
Book TitleYadi Chuk Gaye To
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahavir Prasad Jain
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2007
Total Pages85
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size276 KB
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