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यदिचूक गये तो जब कर्म ही नहीं होंगे तो दुर्भाग्य सौभाग्य का सवाल ही कहाँ रहा?
शलाका पुरुष भाग-२से होती है।
जिसप्रकार विशाल समुद्र के बीच जहाज पर बैठे पक्षी को जहाज के सिवाय अन्य कुछ भी शरण नहीं है, उसीप्रकार संसारी प्राणी को एक आत्मा के सिवाय अन्य कुछ भी शरण नहीं है। सब संयोग अध्रुव है। यह जीव परिवार के लिए पाप करता है और उसका फल उसे स्वयं को भोगना पड़ता है। अतः ऐसे परिवार का मोह तुरन्त त्यागने योग्य है।
अनादि से जीव बाह्य विषयों में मोहित होकर उनसे सुखी होना चाहता है; परन्तु अभी तक सुखी नहीं हुआ, किन्हीं भी विषयों में उसे तृप्ति नहीं मिली; क्योंकि उनमें सुख है ही नहीं, उनके पीछे दौड़ने में मात्र दुःख और आकुलता ही होती है। __ जब किसी ज्ञानी धर्मात्मा से सुनकर या जानकर कोई भव्य जीव अपने
आत्मस्वरूप को शान्तिपूर्वक विचारता है, उससमय वह पाँच इन्द्रियों के किसी भी विषय को भोगता नहीं है, उसका चिन्तन भी नहीं करता । आत्म विचार ही करता है कि - "मेरा आत्मतत्त्व शरीर से भिन्न है, उसे साधकर मैं मोक्ष प्राप्त करूँगा" - ऐसे विचार के समय पाँच इन्द्रियों के बाह्य विषय यद्यपि छूट गये हैं; परन्तु वह जीव दुःखी नहीं है, परन्तु अन्तर में उसे शान्ति का वेदन ही होता है। वह आत्मा में अधिक गहराई तक उतरकर तन्मय हो तो उसे अतीन्द्रिय सुख का वेदन भी होगा; वही मोक्षसुख का स्वाद है। इसप्रकार विषयों के बिना अकेले आत्मा से मोक्षसुख का अनुभव होता है। आत्मा द्वारा होनेवाला ऐसा सुख ही नित्य रहनेवाला सच्चा सुख है।
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हे भव्य आत्माओ! जीव को अन्तर में जो सुख-दुःख की अनुभूति होती है, उन अनुभूतियों को जीव स्वयं अन्तर में स्वानुभव से स्पष्ट जानता है। विचार की उत्पत्ति शरीर में नहीं, जीव में होती है। जीव अरूपी है इसलिए उसके विचारों एवं अनुभूतियाँ भी अरूपी हैं; वे नेत्रादि इन्द्रियों द्वारा दृष्टिगोचर न होने पर भी स्वसंवेदनरूप ज्ञान से जानी जा सकती हैं। इसप्रकार संवेदन करनेवाला तत्त्व ही जीव है। इसप्रकार अरूपी एवं ज्ञानमय जीव का अस्तित्व प्रत्येक को अपने स्वसंवेदनज्ञान से सिद्ध हो सकता है। 'मैं हूँ" ऐसी अपनी अस्ति का जो वेदन करता है, वही जीव है।
-- एक मनुष्य को जितना ज्ञान है; हाथ-पैर कट जाने से कहीं उसका ज्ञान उतना कट नहीं जाता, ज्यों का त्यों रहता है; क्योंकि ज्ञान शरीर में नहीं; किन्तु शरीर से भिन्न जीव में ही है। ज्ञान जीव का ही लक्षण है, शरीर का नहीं। शरीर संयोगी वस्तु होने से उसके दो टुकड़े हो सकते हैं; जीव असंयोगी होने से उसके दो टुकड़े किसी प्रकार नहीं हो सकते। __कई बार देखा जाता है कि कोई जीव शरीर में रोगादि प्रतिकूलता होने पर भी शान्ति रखता है और धर्मध्यान करता है तथा किसी अन्य जीव को बाह्य में स्वस्थ-सुन्दर शरीर होने पर भी अन्तर में वह किसी भयंकर चिन्ता से जल रहा होता है। इसप्रकार दोनों तत्त्वों की क्रिया बिल्कुल भिन्न-भिन्न
___ संसार के चाहे जैसे पुण्य संयोग हों, वे जीव को तृप्ति नहीं दे सकते; जीव को तृप्ति दे - ऐसा स्वभाव आत्मा में ही है। निज स्वभाव में सुख का जो भण्डार है, उसे देखते ही अपूर्व सुखानुभव और तृप्ति होती है। उस सुख के लिए किसी बाह्य सामग्री की अपेक्षा नहीं होती। राजवैभवादि चाहे जितने होने पर भी जीव मानसिक चिन्ताओं से दुःखी ही रहता है।
-- मोक्षमार्ग आत्मा के आश्रित ही है; इसलिए उपयोग को परद्रव्यों में मत घुमाओ; अपने आत्मस्वरूप में ही एकाग्र होकर सम्यग्दर्शन-ज्ञानचारित्ररूप परिणमित होओ।
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