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यदिचूक गये तो
शलाका पुरुष भाग-२से
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व्यय को अभावरूप कारण व अस्ति से उत्पाद को कार्य कहा जाता है।
सकता; क्योंकि उसके रहते हुए भी कार्य सम्पन्न नहीं होता। यदि ध्रुव उपादान को समर्थ कारण मानेंगे तो कारण के रहते कार्य सदैव होते रहने का प्रसंग प्राप्त होगा।
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यद्यपि त्रिकाली उपादान समर्थकारण नहीं है; परन्तु यह स्वभाव का नियामक है। जब भी कार्य होगा, तब इसी ध्रुव या त्रिकाली उपादान में से ही होगा; अन्य किसी द्रव्य में से नहीं होगा। इस अपेक्षा त्रिकाली द्रव्य को द्रव्यार्थिकनय से कार्य का नियामक कारण कहा है। यह नय सम्पूर्ण द्रव्य को ग्रहण करता है।
ध्रुव उपादान को कारण मानने से लाभ यह है कि साधक की दृष्टि अन्य अनन्त द्रव्यों पर से हटकर एक अपने त्रिकाली ध्रुव उपादान कारण का ही आश्रय करने लगती है। इसी अपेक्षा इसे आश्रयभूत कारण भी कहा जाता है। जब भी कार्य होगा, ध्रुव उपादान में ही होगा, इसकारण ध्रुव उपादान को उपचार से कारण कह दिया है।
शक्ति दो प्रकार की होती है - द्रव्यशक्ति और पर्यायशक्ति । इन दोनों शक्तियों का नाम ही उपादान है। पर्यायशक्ति से युक्त द्रव्यशक्ति ही कार्यकारी होती है। द्रव्यशक्ति नित्य होती है और पर्याय शक्ति अनित्य । यद्यपि नित्यशक्ति के आधार पर कार्य की उत्पत्ति मानने पर कार्य के नित्यत्व का प्रसंग आता है; अतः पर्यायशक्ति को ही कार्य का नियामक कारण स्वीकार किया गया है। तथापि द्रव्यशक्ति यह बताती है कि यह कार्य इस द्रव्य में ही होगा, अन्य द्रव्य में नहीं और पर्यायशक्ति यह बताती है कि विवक्षित कार्य विवक्षित समय में ही होगा अतः न तो द्रव्यशक्ति महत्त्वहीन है और न पर्यायशक्ति ही; दोनों का ही महत्त्व है। पर ध्यान रहे काल की नियामक पर्यायशक्ति ही है। काल का दूसरा नाम भी पर्याय है। यह पर्यायशक्ति अनन्त पूर्वक्षणवर्ती पर्याय के व्यय रूप एवं तत्समय की योग्यतारूप होती है। अतः इन दोनों की ही क्षणिक उपादान संज्ञा है। इसीलिए क्षणिक उपादान को कार्य का नियामक कहा गया है।
यदि त्रिकाली उपादान को भी शामिल करके बात कहें तो इसप्रकार कहा जायेगा कि पर्यायशक्ति युक्त द्रव्य शक्ति कार्यकारी है, पर इसमें भी नियामक कारण के रूप में तो पर्यायशक्तिरूप क्षणिक उपादान ही रहा।
यदि निमित्त को भी इसमें शामिल करके बात करनी है तो इसप्रकार कहा जाता है कि सहकारीकारण सापेक्ष विशिष्ट पर्यायशक्ति से युक्त द्रव्यशक्ति ही कार्यकारी है।
रत्नत्रयस्वरूप कार्य प्रगट करने की भावनावाला व्यक्ति अन्य अनेक व्यवहार के विकल्पों में उलझे उपयोग को वहाँ से हटाकर अपने त्रिकाली
आत्मद्रव्य का ही आश्रय लेने में लगाता है। यह प्रयोजन देखकर ही त्रिकाली उपादान कारण को उपचार से कारण कहा है।
पूर्वपर्याय के व्ययपूर्वक ही नवीन पर्याय का उत्पाद होता है। व्यय के बिना उत्पाद नहीं होता। यह विधि या पुरुषार्थ का नियामक है। जब भी कार्य होगा तो इस विधिपूर्वक ही होगा - ऐसा नियम बताने के लिए पूर्व पर्याय के व्यय को कारण कहा जाता है।
अरे! ऐसे प्रतापवंत चन्द्र को भी क्षणभर में राहु ग्रस लेता है तो पुण्य से प्राप्त इस राज्य वैभव को भी दुर्भाग्य रूप राहू कभी भी ग्रस सकता है, अतः समय रहते ऐसा काम क्यों न करें, जिससे दुर्भाग्य को ग्रसने का मौका ही न मिलें। वह हमें ग्रसित करे। उसके पहले हम ही उस दुर्भाग्य को सौभाग्य में बदल दें। अर्थात् जिनदीक्षा धारण करके उस कर्मकलंक को ही धो डालें।
यद्यपि उत्तर पर्याय का उत्पाद ही पूर्व पर्याय का व्यय है, इनमें वस्तुभेद व कालभेद नहीं है, तथापि आगम में ऐसी कथन पद्धति है कि नास्ति से
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