SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 63
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ यदिचूक गये तो शलाका पुरुष भाग-२से १२५ १२४ अटवी में भटकता हुआ मोक्षमार्ग में भ्रष्ट हो गया है। तक जिन संयोगों में अपनी स्वयं की योग्यता से रहना था, तब तक उन्हीं संयोगों के अनुरूप उसे वहाँ उसी रूप में सब बाह्य कारण-कलाप सहज ही मिलते गये। एक द्रव्य दूसरे द्रव्य में तो कुछ करता ही नहीं, द्रव्यों का समयसमय होनेवाला परिणमन भी स्वतंत्र है। तीर्थंकर भगवान की दिव्यध्वनि में आया कि इस महामंत्र के संबंध में समय-समय पर प्रचारित किंवदन्तियों एवं पौराणिक कथा-कहानियों से जहाँ एक ओर जैनजगत में इस महामंत्र के प्रति श्रद्धा उत्पन्न हुई है, जिज्ञासा जगी है; वहीं दूसरी ओर अंधविश्वास एवं भ्रान्त धारणायें भी कम प्रचलित नहीं हुई। इन भ्रान्त धारणाओं एवं अंधविश्वासों के निराकरण के लिए इस महामंत्र के सही स्वरूप का एवं प्रचलित कथा-कहानियों का यदि अभिप्राय समझकर अनुशीलन/परिशीलन किया जायेगा तो ही सही समाधान होगा। लौकिक कार्यों की सिद्धि हो जाने से अलौकिक महामंत्र की महिमा कैसे बढ़ सकती है? अरे भाई! लौकिक कार्यों की सिद्धि तो पुण्य के प्रताप से होती है, सीधे मंत्रों के जाप जपने से नहीं। हाँ, यदि निष्कामभाव से मंत्र जपते हुए कषायें अत्यन्त मंद रहें तो पुण्यबंध होता है; पर ज्ञानी उसे भी उपादेय नहीं मानते, उसके फल में लौकिक कामनायें नहीं करते । लौकिक कामनाओं से तो उल्टा पाप बंध ही होता है; क्योंकि कामनायें तो तीव्र कषाय में ही संभव हैं। आयुकर्म का उदय भी एक निमित्त कारण ही है। निमित्त होते तो अवश्य हैं, पर वे कर्ता नहीं हैं। कार्य के समय उनकी उपस्थिति होती हैं; अतः कभी किसी को महत्त्व मिल जाता है और कभी किसी को। वक्ता के द्वारा जब जिसको जैसा मुख्य/गौण करना होता है, कर देता है। वास्तविक कारण तो जीव की तत्समय की योग्यता ही है। "तादृशी जायते बुद्धिः व्यवसायश्चतादृशाः । सहायतास्तादृशाः संति यादृशी भवितव्यता ।। जीव का जिससमय जैसा-जो होना होता है, तदनुसार ही बुद्धि या विचार उत्पन्न हो जाते हैं। प्रयत्न भी वैसे ही होने लगते हैं, सहयोगियों में वैसा ही सहयोग करने एवं दौड़-धूप करने की भावना बन जाती है और कार्य हो जाता है; अतः कारणों के मिलाने की आकुलता मत करो। -- पौराणिक कथायें पौराणिक होती हैं, न कल्पित न मिथ्या; परन्तु प्रथमानुयोग के प्रयोजन व कथन पद्धति को न समझनेवाले उन कथाओं के कथन का प्रयोजन व अभिप्राय ग्रहण न करके अर्थ का अनर्थ करते अवश्य देखे जाते हैं। जिसे वस्तु के स्वतंत्र परिणमन में श्रद्धा-विश्वास हो जाता है, उसे आकुलता नहीं होती। भूमिकानुसार जैसा राग होता है, वैसी व्यवस्थाओं का विकल्प तो आता है, पर कार्य होने पर अभिमान न हो तथा कार्य न होने पर आकुलता न हो; तभी कारण-कार्य व्यवस्था का सही ज्ञान है - ऐसा माना जायेगा। आयु कर्म भी अचेतन है, जड़ है, वह भी जीव को जीवनदान देने में समर्थ नहीं है। वह उन चार निमित्तों की तरह ही है। वास्तविक बात तो यह है कि उस मरीज के उपादान की योग्यता ही ऐसी थी कि जिसे-जहाँ जब जब जो कार्य होना होता है, तब उसके अनुरूप सभी कारण कलाप मिलते ही हैं। कहने का अर्थ है कि एक कार्य होने में अनेक कारण मिलते __ हैं; किन्तु कथन किसी एक कारण की मुख्यता से किया जाता है, अन्य
SR No.008389
Book TitleYadi Chuk Gaye To
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahavir Prasad Jain
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2007
Total Pages85
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size276 KB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy