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________________ १२६ यदिचूक गये तो शलाका पुरुष भाग-२से कारण गौण रहते हैं। का साधन करता है, वह साधक श्रावक है। जिसकी होनहार भली हो उसे तो एक के बाद एक अनुकूल निमित्त भी मिलते जाते हैं और उसके परिणामों में विशुद्धि आती जाती है, रुचि बढ़ती जाती है। निमित्त तो इसको पहले भी कम नहीं मिले और उन्होंने कितना समझाने की कोशिश की, पर कहाँ समझे? जब तत्त्वज्ञान हो जाता है तो कभी सत्साहित्य को श्रेय देते हैं, कभी अपने मित्र को धन्यवाद देते हैं, कभी अपने भाग्य को सराहते हैं तो कभी अपने गुरुजी की प्रशंसा करते हैं। जिन आचार्यों ने श्रावक के मूलगुणों के वर्णन में अष्ट मूलगुणों की चर्चा नहीं की, उनकी दृष्टि में भी मद्य-मांस-मधु आदि प्रथम भूमिका में ही त्याज्य हैं, क्योंकि मूलगुण कहते ही उसे हैं, जिनके धारण बिना श्रावकपना ही संभव नहीं है। जो धर्मतत्त्व को स्वयं सुनता हो, जैनधर्म में पूर्ण श्रद्धा रखता हो तथा सदाचारी हो, उसे श्रावक कहते हैं। पाक्षिक श्रावक किसी व्रत का पालन नहीं करता, इस कारण वह अव्रती है, पर जिनधर्म का पक्ष होने से वह श्रावक के मूलगुणों का पालन अवश्य करता है। मूलगुणों का पालन किए बिना तो कोई नाममात्र से भी श्रावक नहीं कहला सकता। ये मनुष्य जीवन और यह ज्ञानियों के संयोग, यह प्राकृतिक सौन्दर्य, ये इन्द्रियों के भोग सब ओस की बूंदों की भाँति क्षण-भंगुर हैं। जीव के ये हर्ष-विषाद के विभाव भाव भी क्षण-क्षण में पलट जाते हैं। इन परपदार्थों या परभावों के भरोसे रहना योग्य नहीं है। अपने स्थिर और असंयोगी आत्मतत्त्व का ही आलम्बन सारभूत है। शेष सब संयोग असार हैं, पुण्य के फलरूप विषयों में यदि सुख होता तो (मुझे) पुण्य की पराकाष्ठा रूप उत्कृष्ट सुख-सामग्री प्राप्त है, फिर भी मेरा मन संतुष्ट क्यों नहीं है? जो मनुष्य सम्यग्दर्शन सहित अष्ट मूलगुणों का धारी एवं सप्त व्यसन का त्यागी हो, उसे दार्शनिक श्रावक कहा गया है। -- सावध का सामान्य अर्थ है हिंसाजनक प्रवृत्ति । यद्यपि पूजा एवं जिनमंदिर का निर्माण आदि कार्य भी सावध है, पर ये धर्म के सहकारी व आयतन होने से कथंचित् ग्राह्य कहे हैं; परन्तु जो लौकिक सावध व्यापार है, जिनमें बहुत जीवघात होता है, वे तो सर्वथा त्याज्य ही हैं। वस्तुतः विषय सामग्री का सुख सुख है ही नहीं, यह तो दुःख का ही एक रूप है, मिठास लपेटी तलवार के समान है। आश्चर्य है कि सारा संसार इसमें सुख माने बैठा है। -- जिसे अरहंत देव का पक्ष हो, जो मात्र सच्चे देव-गुरु-शास्त्र एवं वीतराग धर्म का ही पक्ष रखता हो, उसे पाक्षिक श्रावक कहते हैं। जो श्रावक के बारह व्रतों एवं ग्यारह प्रतिमाओं का निरतिचार पालन करता है एवं न्यायपूर्वक आजीविका करता है, उसे नैष्ठिक श्रावक कहते हैं। जो जीवन के अन्त में काय को कृष करने के लिए विषय-कषायों को क्रमशः कम करता हुआ आहार आदि सर्वारंभ को छोड़कर परम समाधि मात्र इस णमोकार महामंत्र की ही नहीं, अपितु सम्पूर्ण वीतरागी जैनदर्शन की भी यही महानता है कि वह कामनाओं की पूर्ति में नहीं, बल्कि कामनाओं के नाश में आनन्द मानता है; विषय भोगों की उपलब्धि में नहीं, उनके त्याग में आनन्द मानता है। जगत के सहज स्वाभाविक परिणमन को वस्तु का स्वभाव माननेवाले अकर्तावादी जैनदर्शन में चमत्कारों को कोई स्थान नहीं है। वीतरागी पंच-परमेष्ठियों के उपासक सच्चे जैन वीतरागी भगवान से (६४)
SR No.008389
Book TitleYadi Chuk Gaye To
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahavir Prasad Jain
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2007
Total Pages85
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size276 KB
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