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यदिचूक गये तो
शलाका पुरुष भाग-२से
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इस संसार में एकमात्र सम्यग्दर्शन ही दुर्लभ है, सम्यग्दर्शन ही ज्ञान व चारित्र का बीज है, इष्ट पदार्थ की सिद्धि है, परम मनोरथ है, अतीन्द्रिय सुख है और यही कल्याणों की परम्परा है - ऐसे सम्यग्दर्शन के स्वरूप का कथन करते हुए कहा गया है कि शुद्धजीव का साक्षात् अनुभव होना निश्चय सम्यग्दर्शन है तथा जीवादि सातों तत्त्वों की तथा सच्चे देव-शास्त्र-गुरु की यथार्थ श्रद्धा व्यवहार सम्यग्दर्शन है।
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जैसा वस्तु का स्वरूप नहीं है, वैसा मानना तथा जैसा है वैसा नहीं मानना - ऐसे विपरीत अभिप्राय सहित देव-शास्त्र-गुरु आत्मा एवं छह द्रव्य, सात तत्त्व आदि प्रयोजनभूत पदार्थों के विषय में अन्यथा प्रतीति ही मिथ्यादर्शन है।
भगवान महावीर को मुक्त हुए मात्र साधिक ढाई हजार वर्ष ही हुए हैं और उनकी दिव्यध्वनि का सम्पूर्ण सार हमें आचार्यों द्वारा प्राप्त है। इस अपेक्षा विचार करो तो चौथे काल के जीवों को तीर्थंकरों का कितना भारी अन्तराल झेलना पड़ा। उस लम्बेकाल तक जिनवाणी की अविच्छिन्न धारा संभव ही नहीं थी; अतः हमें इस मनुष्यपर्याय में किसी पन्थवाद के पक्षपात में न पड़कर तथा धर्मक्षेत्र में राजनीति की चालबाजियाँ न चलाकर सीधे-सरल ढंग से जिनवाणी के रहस्य को समझकर अपना मानव जन्म सफल कर लेना चाहिए।
सुख का समय बीतते पता नहीं चल पाता और दुःख का एक पल पहाड़-सा लगता है। अतः सुखद-अनुकूलता में अपना कार्य शीघ्र साध लेना चाहिए।
भगवान की दिव्यध्वनि में आया कि - मिथ्यात्व सबसे बड़ा पाप है; क्योंकि इसी के कारण सब पापों की परम्परा चलती है। इसी विपरीत मान्यता या उल्टी समझ के कारण पर-पदार्थों में कर्तृत्व एवं इष्ट-अनिष्ट की मिथ्याकल्पना होती है, उसमें राग-द्वेष का जन्म होता है, राग-द्वेष से कर्मबन्ध होकर संसार में जन्म-मरण का दुःख होता है।
___कोई भी वस्तु न सर्वथा नित्य है और न सर्वथा अनित्य है। न ज्ञानमात्र है और न शून्यरूप ही है; किन्तु प्रत्येक वस्तु अस्ति-नास्ति रूप अनेक धर्मोंवाली है। आत्मा है; क्योंकि उसमें ज्ञान का सद्भाव है। आत्मा पुनर्जन्म लेता है; क्योंकि उसे पूर्व पर्याय का स्मरण होता है, संस्कार भी पूर्वजन्म के अगले जन्म में जाते हैं। आत्मा सर्वज्ञ स्वभावी है; क्योंकि उसके ज्ञान में वृद्धि होते देखी जाती है।
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हे भव्य ! एकद्रव्य से दूसरा द्रव्य जुदा है। एक द्रव्य में रहनेवाले अनंतगुण भी जुदे-जुदे हैं, परंतु दो द्रव्यों में अत्यन्ताभाव है और एक द्रव्य के गुणों में परस्पर अतद्भाव है।
यद्यपि विद्वान लोग स्त्री पर्याय को निन्द्य बताते हैं, महिलाएँ ऐसा अनुभव करती हैं कि उनके तीनोंपन पराधीनता में ही बीतते हैं। पहले पिता के आधीन, फिर पति के आधीन और अन्त में पुत्र के आधीन, पर उन्हें अपने अन्दर ऐसी हीन भावना नहीं रखना चाहिए; क्योंकि वे महिलायें ही जब तीर्थंकर तुल्य महा भाग्यवान पुत्रों को जन्म देती हैं तो वे जगत माता बन जाती हैं तथा वस्तुस्वभाव की ओर से देखें तो भगवान आत्मा न पुरुष है, न स्त्री है और न नपुंसक । जो भी अवसर मिला है, उसे सार्थक करते हुए स्त्री पर्याय को उच्छेद करने का प्रयत्न करें।
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___अनादिकालीन मिथ्यात्व के उदय से दूषित हुआ यह आत्मा स्वयं अपने ही कारण अपने आत्मा को दुःख में डाले हुए है तथा भूताविष्ट पुरुष की भाँति अविचारी हो रहा है। यह प्राणी मिथ्यामान्यता के वश अनादिकाल से स्वयं ही अहितकारी कार्यों में आचरण करता आ रहा है। संसाररूपी