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शलाका पुरुष भाग-२से
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यदिचूक गये तो नियमों का लोप नहीं करते। पर यह समझ में नहीं आता कि इस मनुष्य को किस श्रेणी में रखा जाय, जो दिन में भी खाता है और रात्रि में भी?
आयुर्वेद व शरीर विज्ञान के नियमानुसार मानव को सोने के ४-५ घंटे पहले भोजन कर ही लेना चाहिए, तभी वह स्वस्थ रह सकता है। खाकर तुरन्त सो जाने से पाचन नहीं होता, जिससे अनेक बीमारियाँ हो जाती हैं। अहिंसा धर्म का पालन करने की दृष्टि से भी जैन व जैनेत्तर सभी शास्त्रों में रात्रि भोजन के त्याग पर बहुत जोर दिया जाता है।
अहिंसाव्रतं रक्षार्थं, मूलव्रत विशुद्धये ।
निशायां वर्जयेत भुक्तिं, इहामुत्रच दुःखदाम् ।। अहिंसाव्रत की रक्षा और आठ मूलगुणों की निर्मलता के लिए तथा इस लोक संबंधी रोगों से बचने के लिए एवं परलोक के दुःखों से बचने के लिए रात्रि भोजन का त्याग कर देना चाहिए।
जो जिह्वा लोलुपी पुरुष रात्रि में भोजन करते हैं, वे लोग न तो भूत, पिशाच और शाकनी-डाकनियों के दुष्प्रभाव से बच सकते हैं और न नानाप्रकार की व्याधियों से ही बच सकते हैं; क्योंकि रात्रि में भूत-पिशाचों का भी संचार होता है और जीव-जन्तुओं का भी, जिनके कारण बीमारियाँ पनपती हैं।
रात्रि भोजन त्याग की महिमा प्रदर्शित करते हुए कहा है कि जो पुरुष रात्रि भोजन का त्याग करता है, वह एक वर्ष में छह माह के उपवास का फल प्राप्त करता है। क्योंकि वह रात्रि में आरंभ का त्याग करता है।
जो जिनधर्मी होकर रात्रि में भोजन करते हैं, उसके द्वारा आगामी परम्परा तो बिगड़ती ही है, संतान पर बुरा प्रभाव भी पड़ता है तथा रात्रि में चूल्हा-चक्की के आरंभ से चौके की सफाई, बर्तनों के धरने-उठाने, धोनेमांजने आदि घोर कर्म करने से भारी हिंसा भी होती है - ऐसे तीव्र रागी
और घोर हिंसक कर्म करनेवालों को जैनकुल में जन्म लेने का कोई लाभ नहीं मिलता।
अरे भाई! रात्रि भोजन में धर्म की हानि, स्वास्थ्य की हानि एवं लोकनिंदा
तथा सर्वज्ञ की आज्ञा का उल्लंघन जैसे अनेक दोष होने पर भी यदि तू रात्रि में ही खाने का दुराग्रह रखता है, सो ऐसा काम तीव्रराग के बिना संभव नहीं है और तीव्र राग स्वयं अपने आप में आत्मघात होने से भाव हिंसा है। जैसे अन्न का ग्रास व मांस का ग्रास समान नहीं है, उसीतरह दिन का भोजन व रात्रि का भोजन करना समान नहीं है। रात के भोजन में अनुराग विशेष है, अन्यथा बिना राग के इतना बड़ा खतरा कोई क्यों मोल लेता?
जब दिन में भोजन करना ही स्वास्थ्य एवं सुखी जीवन जीने के लिए पर्याप्त है तो रात्रि में भोजन का हठाग्रह क्यों? जो रात में भोजन करता है, उसके व्रत, तप, संयम कुछ भी संभव नहीं है।
रात्रि भोजन का सबसे बड़ा एक दोष यह भी है कि इस काम में ही महिलाओं को रात के बारह-बारह बजे तक उलझा रहना पड़ता है। इससे खाने वालों के साथ बनाने वाली माता-बहिनों को धर्मध्यान, शास्त्रों का पठन-पाठन, तत्त्वचर्चा, सामायिक, जाप्य आदि सब कुछ छूट जाता है। इसकारण जैनधर्म के धारक रात्रि में भोजन नहीं करते - ऐसी ही सनातन रीति अब तक चली आई है।
जो मनुष्य मद्य पीते हैं, मांस खाते हैं, रात्रि को भोजन करते हैं एवं जमीकन्द खाते हैं, उनके साथ जप-तप तीर्थयात्रादि करना व्यर्थ है।
श्रावक को अहिंसा व्रत का पालन करने के लिए रात्रि भोजन त्याग भी अवश्य करना चाहिए। रात्रि भोजन त्याग के बिना अहिंसा आदि व्रतों की रक्षा नहीं हो सकती; क्योंकि रात्रि में हिंसा अवश्यंभावी है।
रात्रि भोजन त्याग की चर्चा छठवीं प्रतिमा में भी आती है, वहाँ रात्रि भोजन के सम्पूर्ण अतिचारों से रहित एवं कृत कारित अनुमोदना भी न करने की बात है। सामान्य रात्रि भोजन का त्याग तो अष्ट मूलगुणों में ही हो जाता है।
-- स्पर्शन, रसना एवं घ्राण इन्द्रियों के विषय में अनुराग रखने वाले
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