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________________ शलाका पुरुष भाग-२से ११४ यदिचूक गये तो मनुष्यों को जो इनके सेवन से मानसिक तृप्ति होती है, उसे काम कहते हैं। प्रतिष्ठा बनती है, वह भी कोई कम नहीं है। यह संसार का सुख सचमुच क्षणभंगुर है। अब तक इस राज्य को न जाने कितने राजा भोग चुके हैं। मैं इस उच्छिष्ट (जूठन) का उपभोग कर रहा हूँ। क्यों न मैं ही इसका त्याग कर आत्मा की साधना, परमात्मा की आराधना करके इन पुण्य-पाप कर्मों को तिलाञ्जलि देकर अन्य तीर्थंकरों की तरह अजर-अमर पद प्राप्त करूँ। हे भव्य सुनो! अब आगे विज्ञान के युग में वस्त्र से छने जल की उपयोगिता और अधिक बढ़ेगी। न केवल जैन, अन्यमत वाले भी छना (निर्जन्तुक) पानी पीयेंगे; क्योंकि सूक्ष्मदर्शक यंत्रों से भी सिद्ध हो जायेगा कि बिना छने पानी में चलते-फिरते असंख्य सूक्ष्म त्रस जीव होते हैं। उन जीवों के उदर में जाने पर वे तो मरते ही हैं, अनेक उदर रोगों को भी उत्पन्न करते हैं। इसलिए जीव रक्षण और स्वास्थ्य-संरक्षण की दृष्टि से वस्त्रगालित जल पीना अत्यावश्यक होगा। वस्त्रगालित जल में भी एक अन्तर्मुहूर्त के बाद पुनः सम्मूर्च्छन त्रसजीव पैदा हो जाते हैं। एतदर्थ ब्रह्म नेमीदत्त छने और प्रासुक (गर्म) जल की अवधि का ज्ञान कराते हुए कहते हैं। अच्छे प्रकार से मोटे सूती कपड़े से छाने गये जल में भी एक मुहूर्त अर्थात् दो घड़ी के पश्चात् सम्मूर्च्छन जीव उत्पन्न हो जाते हैं। प्रासुक किया हुआ (उबले हुए) जल की आठ प्रहर तक की मर्यादा है। इस संसार में ऐसा कौन-सा पदार्थ है, जिसे मैंने देखा न हो, छुआ न हो, सूंघा न हो और खाया न हो। ये जीव अपने पूर्वभवों में जिन पदार्थों का अनन्तबार उपभोग कर चुके हैं, उन्हें ही बार-बार भोगते हैं; फिर भी तृप्ति नहीं मिलती। वस्तुतः ये निःसार हैं, त्याज्य हैं। जो हिंसा-झूठ-चोरी आदि पापों के दुष्परिणाम पर ध्यान ही नहीं देता और इन्द्रियों के विषय जो प्रत्यक्ष आकुलता के जनक हैं, उन्हें सुख समझकर भोग रहा है, उसके लिए विचारणीय यह है कि - ये भोग भुजंग के समान दुःखद हैं। अतः जिस धर्म साधना से पुण्य और पाप दोनों कर्म बन्धनों का अभाव होकर अविनाशी और निराकुल सुख मिलता है, उसे ही शीघ्र धारण क्यों न करूँ? स्नान करने में, वस्त्र धोने तथा किसी भी वस्तु का प्रक्षालन करने में तत्काल का छाना हुआ पानी ही काम में लेना चाहिए; क्योंकि जो बिना छने पानी से स्नान आदि भी करते हैं, उनसे जीवों की हिंसा होती है। इकहरे छन्ने से बैक्टिरिया तो छन जाते हैं; पर वायरस नहीं छनते और दुहरे मोटे सूती कपड़े के छन्ने से वायरस भी छन जाते हैं; अतः स्वस्थ रहने की दृष्टि से भी पानी सदा दुहरे व मोटे छन्ने से ही छानना चाहिए। छने पानी पीने की प्रतिज्ञा लेनेवाला हिंसा के महापाप से तो बचता ही है साथ में सहज ही अनेक बीमारियों से एवं धोखाधड़ी के खतरों से भी बच जाता है। इसतरह छने पानी से दयाधर्म के साथ स्वास्थ्य का लाभ भी मिलता है और जीवन भी सुरक्षित होता है। इन सबके साथ उसकी जो सामाजिक जब-जब जिस पाप प्रवृत्ति का बाहुल्य होता है, तब-तब आचार्य उस प्रवृत्ति का त्याग कराने के लिए उनके त्याग को मूलगुण की कोटि में सम्मिलित कर लेते हैं; क्योंकि उन स्थूल पाप प्रवृत्तियों को त्यागे बिना सम्यग्दर्शन की पात्रता भी नहीं आती। -- जहाँ हिंसा के त्याग का नियम ले लिया गया हो, वहाँ कोई हिंसा के आयतनरूप रात्रि भोजन, अनछना जल आदि का उपयोग भी कैसे कर (५८)
SR No.008389
Book TitleYadi Chuk Gaye To
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahavir Prasad Jain
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2007
Total Pages85
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size276 KB
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