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यदि चूक गये तो
जो अरहंत भगवान को द्रव्य-गुण-पर्याय से पहचानता है, वही अपने आत्मा के स्वरूप को जानता है तथा अरहंत परमात्मा व अपने आत्मा के स्वरूप को जाननेवालों का मोह नष्ट हो जाता है, वह सम्यग्दर्शन प्राप्त कर मोक्षमार्ग का पथिक बन जाता है।
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भक्त अपने हृदय का हर्षोल्लास प्रगट करते हुए कह रहा है कि हे प्रभो! आपके मुख मण्डल रूप दिनकर के दर्शन करने से मेरा मिथ्यात्वरूपी अंधकार नष्ट हो गया है और मेरे हृदय में सम्यग्ज्ञानरूपी सूर्य का उदय हो गया है। अतः मुझे ऐसा हर्ष हो रहा है, जैसे किसी रंक को चिन्तामणि रत्न मिलने पर होता है। मानो मुझ रंक को आपके दर्शन के रूप में चिन्तामणि रत्न ही मिल गया है।
• हे प्रभु! आपके गुणों का चिन्तवन करने से अपने पराये की पहचान होती है, भेदविज्ञानरूप विवेक प्रगट हो जाता है तथा अनेक आपत्तियाँविपत्तियाँ विघटित हो जाती है।
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सच्चे वीतरागी देव को रागी देव-देवताओं की श्रेणी में खड़ा तो नहीं कर दिया? तुम लौकिक कामनाओं का पुलिन्दा लेकर कहीं गलत जगह तो नहीं पहुँच गये? क्या तुमने सच्चेदेव का सही स्वरूप समझा है और इनके दर्शन से क्या केवल सम्यग्दर्शन-आत्मदर्शन ही चाहा है ? आदि कुछ बातें विचारणीय हैं, यदि तुम सही दिशा में निर्णय पर पहुँचे हो तो तुम्हें देवदर्शन का लाभ अवश्य मिलेगा, इसमें जरा भी संदेह की गुंजाईश नहीं है।
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लक्ष्मी और सरस्वती दोनों का एक साथ होना अति दुर्लभ है; क्योंकि इनमें सौतिया, डाह या ईर्ष्या होती है।
कोई कितना भी भाग्यशाली क्यों न हो? पुण्य की अखण्डता तो कभी
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शलाका पुरुष भाग-२ से
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किसी के होती ही नहीं है। जिसतरह जहाँ फूल हैं, वहीं कांटे भी है। जहाँ राग है, वहीं द्वेष भी है। सांसारिक सुख के आगे-पीछे दुःख भी होता ही है ।
आयुकर्म के रहते हुए भी भावमरण मरण तो प्रतिपल होता ही रहता है। यदि हमें मरण इष्ट नहीं है तो मृत्यु के कारणभूत इस आयुकर्म से ही मुक्त होना होगा। जो मरण से डरते हैं उन्हें उससे भी पहले आयु कर्म को ही जीतना होगा। फिर न रहेगा बाँस और न बजेगी बाँसुरी ।
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जो मनुष्य को आत्मकल्याण से विमुख कर देवे, वह आदत व्यसन है अथवा जिसे कुशील आचरण, अभक्ष्य भक्षण और हिंसारूप पाप-प्रवृत्ति को किए बिना चैन न पड़े, उन बुरी आदतों को दुर्व्यसन कहते हैं।
मूलाचार में कहा है कि जो महादुःख को उत्पन्न करे, अति विकलता उपजावे उन बुरी आदतों को व्यसन कहते हैं।
स्याद्वाद मंजरी में कहा है कि- “जिसके होने पर उचित अनुचित विवेक विचार से रहित प्रवृत्ति हो, वह व्यसन कहलाता है।"
वसुनन्दि श्रावकाचार में इन व्यसनों को दुर्गति का कारण कहा है। बुद्धिमान जनों को इन महापापरूप सातों व्यसनों का त्याग अवश्य करना चाहिए। वे सात व्यसन इसप्रकार हैं- १. जुआ खेलना, २. माँस खाना, ३. मदिरापान करना, ४ वेश्या सेवन करना, ५ . शिकार खेलना, ६. चोरी करना, ७. परस्त्री सेवन करना ।
जुआ खेलने से महाराज युधिष्ठिर, माँस भक्षण में बक नामक राजा, मद्य पान करने से यदुवंशीय राजकुमार, वेश्यासंगम से चारुदत्त, शिकार खेलने से ब्रह्मदत्त चक्रवर्ती, चोरी करने से शिवभूति और परस्त्री की अभिलाषा से रावण जैसे पुरुष भी विनष्ट हो गये। जब एक-एक व्यसन के कारण ही इन पुराण पुरुषों ने असह्य कष्ट सहे और दुर्गति प्राप्त की तो जो सातों व्यसनों में लिप्त हों, उनकी दुर्दशा का तो कहना ही क्या है ? अतः