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________________ यदिचूक गये तो शलाका पुरुष भाग-१से सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान से शून्य पुरुष का चारित्र भी उसके पतन का कारण है, कुगति का कारण है। जो अनन्तज्ञान आदि गुणों से सहित, घातिकर्मों से रहित, कृतकृत्य हो तथा सबके भला होने में सनिमित्त हो, वह आप्त है। जो आप्त का कहा हो, वह आगम है। अनन्त सुख का अभ्युदय प्राप्त सिद्धपरमेष्ठी मुक्त जीव कहे जाते हैं। -- आत्मतत्त्व को पाने के लिए आत्मज्ञान की जरूरत है। परमात्मा का ज्ञान होने पर भी उस पर श्रद्धा की आवश्यकता है। मात्र श्रद्धान व ज्ञान होने पर भी काम नहीं होता। श्रद्धा व ज्ञान के होने पर जो लोग संयम पालने के लिए अपने सर्वसंग का परित्याग करते हैं, वे धन्य हैं। अग्नि पानी से बुझती है और घी से बढ़ती है। इसीप्रकार कामाग्नि सच्चिदानन्द आत्मरस से बुझती है और परस्पर के संसर्ग से बढ़ती है - यह नियम है। केवल कामाग्नि ही नहीं, बल्कि पंचेन्द्रिय के विषयरूपी पंचाग्नि इष्ट पदार्थों के प्रदान करने पर बढ़ती है और उनसे उपेक्षित होकर आत्मा में मग्न होने पर वह विषय रूप पंचाग्नि अपने आप बुझती है। -- स्नान, भोजन, गंध, पुष्प, आभूषण, नृत्य, गान आदि आत्मा को तृप्त नहीं कर सकते हैं। आत्मा की तृप्ति आत्मध्यान में ही हो सकती है। संसार सुख के मोह को छोड़कर आत्मध्यान का अवलंबन करें तो वह ध्यान आगे जाकर अवश्य मुक्ति को प्रदान करेगा।। -- जिसप्रकार काष्ठ की अग्नि काष्ठ को पत्थर पर रगड़ने से उत्पन्न होती है, उसीप्रकार शरीर में एकक्षेत्रावगाही जो चेतन तत्त्व है, वही आत्मा का चिह्न है। भेदविज्ञान की कला से जड़ शरीर से आत्मा रूप अग्नि तत्त्वाभ्यास के संघर्षण से भिन्न पहचान ली जाती है - ऐसे भेदविज्ञान के अभ्यास से ही आत्मा का परिज्ञान होता है। एक चेतन परिग्रह के रूप में स्त्री के ग्रहण करने के बाद सुवर्ण आदि अनेक अचेतन परिग्रह को ग्रहण करना पड़ता है। तात्पर्य यह है कि कन्या ग्रहण के बाद उसके लिए आवश्यक जेवर वगैरह बनवाने पड़ते हैं एवं अर्थ संचय करना पड़ता है। बाद में यह भावना होती है कि कुछ अचल संपत्ति का निर्माण करें। इसप्रकार मनुष्य संसार के बंधन में बंधता चला जाता है। -- स्त्री और पुरुष भले ही छुपकर रति-क्रीड़ा करते हैं, परन्तु गर्भ रहने पर तो गर्भिणी का मुखम्लान हो ही जाता है, शर्म से माथा नीचा रहता है। प्रसववेदना से बढ़कर लोक में कोई दुःख नहीं है। जिस लौकिक सुख का फल ऐसा भयंकर दुःख है, उस सुख के लिए धिक्कार है। ___ एक बूंद के समान सुख के लिए पर्वत के समान दुःख को भोगने के लिए यह मनुष्य तैयार होता है, यह आश्चर्य है। यदि दुःख के कारणभूत इन पंचेन्द्रिय विषयों का परित्याग करे तो सागर जैसा संसार बूंद के समान रह जाता है, परन्तु अविवेकीजन इस बात का विचार नहीं करते हैं। सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र के क्रम से ही तद्रूप आत्मा का अनुभव करें तो चिद्रूप का शीघ्र परिज्ञान होता है। यह आत्मा पानी से गल नहीं सकता, अग्नि में जल नहीं सकता, तलवार से कट नहीं सकता, वायु से उड़ नहीं सकता। आग, पानी, आयुध, शास्त्रादि शरीर को ही मात्र बाधा पहुँचा सकते हैं, आत्मा को नहीं। शरीर नाशशील है और आत्मा अविनश्वर है, शरीर जड़स्वरूप और आत्मा चेतनस्वरूप है। शरीर भूमि के समान है और आत्मा आकाश के समान है। -- आत्मा स्वभाव से करोड़ सूर्य-चन्द्रमा के समान उज्ज्वल प्रकाश के समान चेतन प्रकाश से युक्त है। वह आत्मा तीन लोक के समस्त पदार्थों को
SR No.008389
Book TitleYadi Chuk Gaye To
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahavir Prasad Jain
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2007
Total Pages85
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size276 KB
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