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________________ शलाका पुरुष भाग-१से यदिचूक गये तो ___मांस, रक्त, चर्ममय प्रदेश में रहकर भी जिसतरह गोदुग्ध रक्त-मांसमय नहीं है। साधु संतों के द्वारा भी सेवनीय है, उसीप्रकार मांस-अस्थि-चर्म आदि कर्मरूपी शरीर में रहकर भी आत्मा परम पावन है, शुद्ध है, निर्मल है। कर्मों से आच्छादित रहकर भी आत्मा अपने अस्तित्व का बोध स्वयं कर सकता है, दूसरों को कराने में निमित्त बन सकता है। जिसप्रकार बीज में वृक्ष छिपा है, उसीतरह इस सदेह बहिरात्मा में देहरहित परमात्मा विराजमान है, देह-देवालय में कारण परमात्मा विराजमान है। जीव, प्राणी, जन्तु, क्षेत्रज्ञ, पुरुष, पुमान, आत्मा, अन्तरात्मा और ज्ञानी - ये सब जीव के पर्यायवाची नाम हैं। चूंकि यह जीव वर्तमान में जीवित है, भूतकाल में भी जीवित था और अनागतकाल में भी जीवित रहेगा - इसलिए इसे जीव कहते हैं। सिद्ध भगवान अपनी पूर्व पर्यायों में जीवित थे, वर्तमान में जीवित हैं और भविष्य में जीवित रहेंगे; इसलिए वे भी 'जीव' कहलाते हैं। लोक में यद्यपि छहद्रव्य एकमेक से होकर सर्वत्र भरे हैं; परन्तु एक द्रव्य और उसका गुण दूसरे द्रव्य या गुणरूप नहीं हो सकता। सब अपने-अपने स्वरूप में पूर्ण स्वतंत्र हैं। जिसप्रकार दूध से भरे घड़े में मधु को भर दिया जाये तो वह भी उसी घड़े में समा जाती है, उसीप्रकार आकाश द्रव्य में सभी द्रव्य समा जाते हैं। भले ही एक-एक द्रव्यों का विस्तार इतना है कि वह अकेला लोकपूर्ण हो जाता है, तथापि आकाश की अवगाहन शक्ति अपार है, असीमित है कि उसमें सभी समा जाते हैं। ___ पाँच इन्द्रियाँ, तीन बल, आयु और श्वासोच्छ्वास - ये दस प्राण पंचेन्द्रिय जीव के विद्यमान हैं। इसकारण यह ‘प्राणी' कहलाता है। इसके असंख्यात प्रदेशी स्वरूप को क्षेत्र कहते हैं और उसे जानता है; इसलिए 'क्षेत्रज्ञ' भी कहलाता है। पुरु अर्थात् अच्छे-अच्छे गुणों में प्रवृत्ति करने से यह 'पुरुष' कहा जाता है और अपने को (स्वयं को) पवित्र करता है, इसलिए पुमान कहलाता है। द्रव्यत्व सामान्य की अपेक्षा जीव द्रव्यनित्य है और पर्यायों की अपेक्षा अनित्य है। एक साथ दोनों अपेक्षाओं से यह जीव उत्पाद-व्यय और ध्रौव्यरूप है। जो पर्यायें पहले नहीं थी, उसका उत्पन्न होना उत्पाद कहलाता है। किसी पर्याय का उत्पाद होकर नष्ट हो जाना व्यय कहलाता है। और दोनों पूर्व पर्यायों में तदवस्थ होकर रहना ध्रौव्य कहलाता है। इसप्रकार यह आत्मा उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य - इन तीनों लक्षणों से सहित है। जिसमें चेतना अर्थात् जानने-देखने की शक्ति पायी जाये उसे जीव कहते हैं। वह अनादि निधन है। द्रव्यदृष्टि की अपेक्षा न तो वह कभी उत्पन्न हुआ है और न कभी नष्ट ही होगा। इसके सिवाय वह ज्ञाता है अर्थात् ज्ञानोपयोग से सहित है, दृष्टा है अर्थात् दर्शनोपयोग से युक्त है। द्रव्यकर्म और भावकर्मों को करने वाला है, ज्ञानादि गुण तथा शुभ-अशुभ कर्मों को करने वाला है, तथा शुभ-अशुभ कर्मों के फलों का भोक्ता है और स्वदेह प्रमाण है। न सर्वव्यापक है और न अणुरूप है, अनेक गुणों से युक्त है। ऊर्ध्वगमन स्वभाव वाला है। नामकर्म के उदय से जितना छोटा-बड़ा शरीर प्राप्त होता है, तदनुसार संकोच-विस्तार हो जाता है। नरक, तिर्यंच, मनुष्य और देव - इन चार भेदों से युक्त संसार रूपी भंवर में परिभ्रमण करना संसार पर्याय है और समस्त कर्मों का क्षय मोक्ष पर्याय है। सम्यग्दर्शन के होने पर ही ज्ञान और चारित्र फल देने वाले होते हैं। जिसप्रकार अंधपुरुष का दौड़ना उसके पतन का ही कारण होता है, उसीप्रकार
SR No.008389
Book TitleYadi Chuk Gaye To
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahavir Prasad Jain
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2007
Total Pages85
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size276 KB
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