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________________ यदिचूक गये तो से १६ एवं हास्य आदि नोकषायें - इस तरह २५ कषायें चारित्र मोहनीय के भेद हैं। शलाका पुरुष भाग-१से जिसप्रकार तेली के यहाँ यंत्र (कोल्हू) खली, तेल एवं आकाश - ये चार पदार्थ हैं उसीप्रकार द्रव्यकर्म, भावकर्म, नोकर्म और आत्मा का एक ही स्थान पर संयोग है। आत्मा इन तीनों में रहता है। जीव के दान, लाभ, भोग उपयोग और वीर्य के विघ्न में जिस कर्म का उदय निमित्त हो, उसे अन्तराय कर्म कहते हैं। इसके उपर्युक्त पाँच भेद हैं। जब आत्मा स्वयं मोहभाव के द्वारा आकुलता करता है, तब अनुकूलता, प्रतिकूलतारूप संयोग प्राप्त होने में जिस कर्म का उदय निमित्त हो उसे वेदनीय कर्म कहते हैं। यह साता और असाता के भेद से दो प्रकार का है। ___कर्मों में वर्ण, रस, गंध और स्पर्शगुण हैं; परन्तु आत्मा में वर्णादि नहीं हैं। वह तो मात्र ज्ञान ज्योति से युक्त हैं। जीव द्रव्य निराकार है, ज्ञान-दर्शन उसके गुण हैं। कर्माधीन होकर यह जीव मनुष्य, देव आदि गतियों में गमन करता है, वे ही जीव की पर्यायें हैं। द्रव्यदृष्टि से जीव नामक पदार्थ एक होने पर भी गुण एवं पर्यायों के भेद से अनेक भेदों से विभक्त होता है। जीव अपनी योग्यता से जब नारकी, तिर्यंच, मनुष्य या देव शरीर में रुकता है, तब उसके रुकने में जिस कर्म का उदय निमित्त हो उसे आयु कर्म कहते हैं। यह आयुकर्म नरकायु, तिर्यंचायु, मनुष्यायु और देवायु के भेद से चार प्रकार का है। यह मनुष्य मरकर अपने परिणामों (भावों) के अनुसार कभी मृग (पशु) होता है, मृग से देव हो जाता है; देव से वृक्ष (एक इन्द्रिय जीव) तक हो जाता है। मनुष्य, मृग, देव एवं वृक्ष के भेद से जीव की चार पर्यायें (दशायें) हुई; परन्तु सब पर्यायों में भ्रमण करनेवाला जीव एक ही है। अणु मात्र (सूक्ष्म) देह को धारण करनेवाला जीव ही अपने कर्मों के अनुसार हजार योजन प्रमाण के विशाल शरीर को भी धारण कर लेता है - ऐसे छोटे-बड़े रूप में संकोच-विस्तार रूप होने की क्षमता जीव में है। जिस शरीर में जीव वर्तमान हो उस शरीरादि की रचना में जिस कर्म का उदय निमित्त है, उसे उसप्रकार का नामकर्म कहते हैं। यह शुभ नामकर्म और अशुभ नामकर्म के भेद से दो प्रकार का होता है। इसकी प्रकृतियाँ जीव को उच्च या नीच आचरण वाले कुल में पैदा होने में जिस कर्म का उदय निमित्त हो उसे गोत्र कर्म कहते हैं। यह उच्च गोत्र और नीच गोत्र - इसप्रकार दो भेदवाला है। देखो, स्फटिक रत्न तो बिल्कुल शुभ्र है; उसके पीछे अन्य रंगों के रखने पर जिसप्रकार उसका रंग बदल जाता है, ठीक इसी प्रकार द्रव्यकर्म, भावकर्म और नोकर्मरूप तीन शरीरों के संबंध से आत्मा कल्मष (मैला) होकर संकटों में पड़ जाता है। राग-द्वेष-मोह - ये तीन कर्मों के बन्धन में मूल कारण हैं, इन्हें भावकर्म कहते हैं। इनके सिवाय यह शरीर नो कर्म है। द्रव्यकर्म खली के समान हैं, भावकर्म तेल के समान हैं और नोकर्म तेलयंत्र (कोल्हू) के समान हैं। आत्मा इन सबसे भिन्न आकाश के समान हैं। यद्यपि यह आत्मा शरीर में रहता है; परन्तु इस आत्मा के कोई शरीर नहीं है। ज्ञान ही इसका शरीर है। आत्मा इन लौकिक शरीरों में रहकर भी उनसे अस्पृष्ट है, अछूता है; क्योंकि आत्मा में स्पर्शगुण ही नहीं है। (४४)
SR No.008389
Book TitleYadi Chuk Gaye To
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahavir Prasad Jain
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2007
Total Pages85
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size276 KB
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