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________________ शलाका पुरुष भाग-१से ८५ का उदय निमित्त कहा जाता है। कर्म थोड़े ही आत्मा को दुःख देते हैं या बलात विकार कराते हैं। -- यदिचूक गये तो था, जीवित है और जीवित रहेगा; उसे जीव कहते हैं अर्थात् जीव अनादि अनन्त है, अमर है। न उसे किसी ने जीवित किया है और न कोई उसे मार सकेगा - ऐसी श्रद्धा से मृत्युभय नहीं रहता। इन प्राणों में पाँच इन्द्रियाँ, तीन बल, आयु और श्वासोच्छ्वास हैं। जीवों को अपने पाप-पुण्य के अनुसार पूर्ण या अपूर्ण प्राप्त होते हैं। एकेन्द्रिय के मात्र चार प्राण होते हैं। एक स्पर्शन इन्द्रिय, एक कायबल, एक आयु और एक श्वासोच्छ्वास । दो इन्द्रिय जीव के रसना इन्द्रिय और वचन बल बढ़कर छह प्राण हो जाते हैं, तीन इन्द्रिय जीव के घ्राण इन्द्रिय बढ़ जाने से सात प्राण होते हैं और चार इन्द्रिय जीव के चक्षु इन्द्रिय बढ़ने से आठ प्राण होते हैं, असंज्ञी पंचेन्द्रिय के पाँचों इन्द्रियाँ तो होती है; किन्तु मन नहीं होता, अतः नौ प्राण होते हैं। संज्ञी पंचेन्द्रिय को मन सहित दसों प्राण होते हैं। परपदार्थ तो इष्ट-अनिष्ट हैं नहीं; परन्तु यह जीव पूर्वोपार्जित रागद्वेषरूप भावकर्म के कारण उन पदार्थों को इष्ट-अनिष्ट मानकर पुनः नवीन मोह-राग-द्वेषरूप परिणमन करता है, यही इसकी भूल है। -- जब तक मन नहीं है, तब तक तो मात्र कर्मफल चेतना अर्थात् मात्र पूर्वोपार्जित कर्मों के फल भोगने की ही मुख्यता होती है, अतः यहाँ तक तो धर्म का पुरुषार्थ करना संभव ही नहीं है। जिन्हें मन मिल भी गया और छह द्रव्य, सात तत्त्व आदि के सुनने, समझने और श्रद्धा करने का सौभाग्य नहीं मिला तो कर्म चेतना और कर्मफल चेतना में ही जीवन चला गया। ज्ञानचेतना की जागृति नहीं हुई तो वह भव भी मुफ्त में चला गया। अतः जीवादि का स्वरूप समझकर मनुष्यभव सार्थक करना है। जो जीव के अनुजीवी अर्थात् भावस्वरूपी गुणों का घात करने में निमित्त हों वे घाति कर्म हैं और आत्मा के अनुजीवी गुणों के घात में निमित्त न हों उन्हें अघातिया कर्म कहते हैं। -- जब आत्मा स्वयं अपने ज्ञानभाव का घात करता है अर्थात् ज्ञानशक्ति को व्यक्त नहीं करता तब आत्मा के ज्ञानगुण के घात में जिस कर्म का उदय निमित्त हो उसे ज्ञानावरण कर्म कहते हैं और जब आत्मा स्वयं अपने दर्शन-गुण का घात करता है तब दर्शन-गुण के घात में जिस कर्म का उदयनिमित्त हो उसे दर्शनावरण कर्म कहते हैं, मति-श्रुत-अवधि-मनः पर्यय और केवलज्ञानावरण रूप से ज्ञानावरणी कर्म पाँच प्रकार का और चक्षु, अचक्षु, अवधि और केवलदर्शनावरण तथा निद्रा; निद्रा-निद्रा, प्रचला, प्रचला-प्रचला एवं स्त्यानगृद्धि के भेद से नौ प्रकार का होता है। आत्मा का हित निराकुल सुख है, वह आत्मा के आश्रय से ही प्राप्त होता है; परन्तु यह जीव अपने ज्ञानस्वभावी आत्मा को भूलकर मोहराग-द्वेष रूप विकारी भावों को करता है, अतः दुःखी है। -- जब तक आत्मा अपने स्वभाव को भूलकर स्वयं मोह-राग-द्वेष रूप विकारी परिणमन करता है, तब आत्मा दुःखी होता है, उस दुःख में कर्मों जब जीव अपने स्वरूप को भूलकर अन्य को अपना माने या स्वरूपाचरण में असावधानी करे तब जिस कर्म का उदय निमित्त हो उसे मोहनीय कर्म कहते हैं। यह दो प्रकार का होता है - १. दर्शनमोहनीय, २. चारित्रमोहनीय। मिथ्यात्व, सम्यक्मिथ्यात्व और सम्यक्त्व प्रकृति मिथ्यात्व - इसतरह तीन भेद दर्शन मोहनीय के हैं, अनन्तानुबंधी, अप्रत्याख्यान प्रत्याख्यान और संज्वलन क्रोध, मान, माया, लोभ के भेद -- (४३)
SR No.008389
Book TitleYadi Chuk Gaye To
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahavir Prasad Jain
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2007
Total Pages85
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size276 KB
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