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यदि चूक गये तो विषधर काले नाग भी नहीं कर सकते। अनैतिक भोगों की इच्छा वाले लोभी पुरुष धन पाने की इच्छा से बड़े-बड़े समुद्र, प्रचण्ड युद्ध, भयंकर वन, गहरी और तीव्र वेग से बहती नदी और ऊँचे जंगली हिंसक प्राणियों वाले पर्वतों पर चढ़कर अपने प्राणों की परवाह किए बिना प्रवृत्ति करते हैं ।
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विषयों की चाह वाले प्राणी की मूर्खता का कहाँ तक बखान करें। वे प्राणी जलचर हिंसक मगरमच्छ से संयुक्त समुद्रों को पार करते हुए दूर-देशों में जाते हैं। भोगों से लुभाये हुए पुरुष चारों ओर से आपदाओं से घिरकर मृत्यु की परवाह किये बिना युद्ध आदि के लिए तत्पर रहते हैं। मरने की कीमत पर भी भोग और यश पाने का प्रयत्न करते हैं।
जिस पाप क्रिया को रोक पाना संभव न हो, उस असमर्थता को अशक्यानुष्ठान कहते हैं। जैसे भोजन के चौके में कुत्ता, बिल्ली, चूहा और मक्खी एक जैसे माँसाहारी और गंदगी पसन्द प्राणी, एक जैसी अशुद्धि फैलाते हैं, फिर भी कुत्ते को जाली का आधा फाटक लगाकर रोका जा सकता है, अतः उसके चौके में प्रवेश मात्र से चौके की अशुद्धि मानी जाती है और उस भोजन सामग्री को हटाकर पुनः बनाई जाती है । बिल्ली को फाटक से नहीं रोक सकते, वह खिड़की आदि के रास्ते से भी आ जाती है, वह दूध को जूठा करेगी तो दूध फेंकेंगे, सब सामग्री नहीं और चूहा मोरी आदि किसी भी रास्ते से कहीं से भी आ सकता है अतः यदि वह आटे को जूठा करेगा तो आटे के उस हिस्से को नोंचकर फैंकेंगे, पूरा आटा नहीं । मक्खी के आटे पर बैठने पर आटा नोंचते भी नहीं, मात्र मक्खी को उड़ा देते हैं। घी के पीपे में मक्खी मर भी जाये तो घी से भरा पूरा पीपा नहीं, मात्र मक्खी ही निकाल कर फैंकी जाती है, बस इसी मजबूरी का नाम अशक्यानुष्ठान है। इसमें जिसप्रकार की अशुद्धि का त्याग करना गृहस्थ संभव नहीं है, वह अशक्यानुष्ठान है।
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शलाका पुरुष भाग-१ से
सभी स्वामियों को ज्ञातव्य हो कि उन्हें अपने सेवकों से कैसा व्यवहार करना चाहिए । १. कठोर दण्ड देने वाला या कठोर व्यवहार करने वाला स्वामी अपने सेवकों को उद्विग्न कर देता है, उसकी उद्विग्नता स्वामी के प्रति श्रद्धा और सेवा की भावना को कम कर देती है, सेवक को उदर पोषण के लिए सेवा कार्य करना तो उसकी मजबूरी है, पर स्वामी के रूखे या कठोर व्यवहार से वह काम उसे भारभूत लगने लगता है, इसकारण काम बिगाड़ने की संभावना तो बढ़ ही जाती है। परस्पर संबंधों में भी कटुता आ जाती है, जो दोनों के लिए अहितकर है। २. स्वामी को चाहिए कि वह अपने अस्वस्थ सेवक को उचित औषधि दिलाकर उसके दुःख को दूर कर उसकी श्रद्धा का पात्र बने । ३. सेवक की दरिद्रता को भी स्वामी द्वारा सहानुभूतिपूर्वक दूर करना चाहिए। इससे सेवक की स्वामी के प्रति समर्पण की भावना बलवती होती है । ४. स्वामी को चाहिए कि वह सेवक के काम से प्रसन्न होकर उसे समय-समय पर पुरस्कार भी देवें। जो स्वामी सेवक के अच्छे काम की प्रशंसा करते हैं, उन्हें प्रोत्साहित करते हैं, भृत्य उनपर सदा अनुरक्त रहते हैं और कभी भी उनका साथ नहीं छोड़ते।
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लोक एक होने पर भी इसके तीन विभाग हैं। १. ऊर्ध्वलोक, भूमध्यलोक एवं ३. अधोलोक । नीचे अधोलोक में सात नरक हैं। नरकों में पापी जीव अपने पूर्व किए पापों के फल स्वरूप अत्यधिक दुःख भोगते हैं।
मध्यलोक में सुमेरू पर्वत के चारों ओर घिरे हुए अनेक द्वीप समुद्र हैं। सुमेरू गिरी के ऊपर अनेक स्वर्ग विभाग हैं। स्वर्गों के ऊपर मुक्ति स्थान (सिद्धशिला) है, सम्पूर्ण लोक की ऊँचाई चौदह राजू है। अधोलोक सात राजू, मध्यलोक एक राजू। सुमेरू से ऊपर कल्पवासी विमानों तक ऊर्ध्वलोक पाँच राजू और ऊपर एक राजू प्रमाण में विभाजित हैं।
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जो इन्द्रिय, बल, आयु और श्वासोच्छ्वास प्राणों के साथ जीवित