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शलाका पुरुष भाग-१से
यदिचूक गये तो मानसिक और आध्यात्मिक। शरीर विज्ञान के अनुसंधान के अनुसार ध्यान का प्रथम प्रभाव शरीर तंत्र पर पड़ता है; इससे रक्त संचार, हृदय स्पन्दन, ग्रन्थियों का रक्तस्राव और मनोभावना भी प्रभावित होती है। अन्य शारीरिक क्रियाओं के समान मन की एकाग्रता रूप ध्यान से भी मस्तिष्क की तरंगों में परिवर्तन आता है।
प्रत्येक प्राणी की अन्तिम इन्द्रिय बहुत तेज होती है, इस सिद्धान्त के अनुसार एक तो साधारण मनुष्य की कर्णेन्द्रिय स्वाभाविक तेज होती है; फिर चक्रवर्ती की तो बात ही जुदी है। भरतजी की तो चक्षु इन्द्रिय इतनी तेज थी कि वे अयोध्या के राजमहल से पूर्व दिशा में उगते सूर्य विमान के अन्दर विराजमान जिन प्रतिमा के दर्शन कर लेते थे। यही वास्तविक सूर्य नमस्कार है।
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इसमें भी सन्देह नहीं है कि यह योगसाधना और तत्संबंधी ध्यान की प्रक्रिया शारीरिक स्वास्थ्य लाभ एवं मानसिक तनावों से छुटकारा पाने के लिए प्राकृतिक नियमों की निकटवर्ती होने से अन्य उपचारों की तुलना में सर्वोत्तम है। स्वास्थ्य लाभ की दृष्टि से तो इसकी उपयोगिता असंदिग्ध ही है; परन्तु ध्यान रहे, इस योग और प्राणायाम के द्वारा शरीर के अंग-अंग का ध्यान करने से आत्मा का हित नहीं होता।
जीतकर भी राज्यसत्ता से मुँह मोड़ने में जैसी निस्पृहता की भावाभिव्यक्ति होती है, वैसी विजित होने पर नहीं होती। उस स्थिति में तो मजबूरी प्रतीत होती है। बाहुबली का त्याग मजबूरी का नहीं, अपितु वैराग्य का प्रतीक था। उनका त्याग असीम आत्मबल का प्रतीक था, स्वाभिमान और धीरोदात्तता का प्रतिफल था।
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निश्चयतः धर्मध्यान आत्मा की अन्तर्मुखी प्रक्रिया है। इस प्रक्रिया में साधक अपने ज्ञानोपयोग को इन्द्रियों के विषयों व मन के विकल्पों से, परपदार्थों से एवं अपनी मलिन पर्यायों पर से हटाकर अखण्ड, अभेद, चिन्मात्र ज्योति स्वरूप भगवान आत्मा पर केन्द्रित करता है, अपने ज्ञानोपयोग को आत्मा पर स्थिर करता है। बस, इसे ही निश्चय से धर्मध्यान कहा जाता है। वर्तमान योग साधना और ध्यान शिविरों में इस ध्यान की तो चर्चा ही नहीं होती। अतः शब्दों की समानता से भ्रमित नहीं होना चाहिए।
यह महत्वाकांक्षी व्यक्ति राज्य सत्ता के लिए भोगोपभोग के सुखसाधन सभी कुछ छोड़ देता है; परन्तु यह भोला प्राणी अपने हित के लिए भी उन्हें नहीं छोड़ पाते। अहा! विषयों में आसक्त हुए पुरुष इन विषयजनित सुखों की क्षण भंगुरता एवं इनके कारण होने वाली कुगति के विषय में नहीं सोचते । यद्यपि ये विषय प्रारंभ में मनोहर मालूम होते हैं, किन्तु फल काल में कड़वे (दुःखद) जान पड़ते हैं।
प्रत्याहार - इन्द्रियों और मन के विषयों से अपने उपयोग को खींचकर, इच्छानुसार जहाँ लगाना चाहें, वहाँ लगाने की प्रक्रिया को प्रत्याहार कहते हैं। ऐसा प्रत्याहार करनेवाला ज्ञानी साधक पाँचों इन्द्रियों एवं मन के विषयों से अपने ज्ञानोपयोग को (मन को) पृथक् करके आकुलता से रहित होता हुआ आत्मस्थ होता है।
जिन अनैतिक विषयों के वश में पड़ा हुआ प्राणी अनेक दुःख की परम्परा को प्राप्त होते हैं, उन विष के समान भयंकर विषयों को कौन बुद्धिमान पुरुष प्राप्त करना चाहेगा। अरे! विष के खाने से तो एक बार ही मरण होता है, परन्तु इन अनैतिक विषयों के सेवन से तो अनन्तभवों में दुःख भोगने पड़ते हैं। अतः ये विकल्प तो विष से भी बुरे हैं।
ये खोटे विषय प्राणियों को जैसा उद्वेग (भयंकर दुःख) उत्पन्न करते हैं, वैसा उद्वेग (दुःख) शस्त्रों के प्रहार, प्रज्वलित अग्नि, वज्र की चोट और