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यदि चूक गये तो
जान-देख सकता है और आत्मा की ध्यानाग्नि से कठोर कर्म भी जलकर भस्म हो जाते हैं।
बाहर के विषय को जानना व्यवहार है और अंतरंग विषय को अर्थात् अपने आत्मा को जानना निश्चय है। आत्मा के पाँच इन्द्रियाँ नहीं हैं, वह सर्वांग से सुख का अनुभव करता है, पौद्गलिक पंचवर्ण आत्मा के नहीं हैं। वह केवल चैतन्य प्रकाशमय है। आत्मा के मन नहीं, वचन नहीं, शरीर नहीं, क्रोध - मान-माया - लोभ, जन्म-मरण, रोग- बुढ़ापा आदि कोई आत्मा के स्वभाव में नहीं हैं। ये सब चिद्विकार एवं शरीर के विकार हैं।
आत्मतत्त्व को जानने वाला कारण परमात्मा है। आत्मा तीन प्रकार के हैं । १. बहिरात्मा, २. अन्तरात्मा, ३. परमात्मा । देह और जीव को एक मानने वाला अज्ञानी बहिरात्मा है । अन्तरात्मा तीन तरह के हैं, उत्तम, मध्यम एवं जघन्य । इनके द्वारा जिस शुद्ध आत्मा का ध्यान किया जाता है, वह कारण परमात्मा है। अरहन्त एवं सिद्ध भगवान परमात्मा हैं।
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आत्मा शुद्ध है यह कथन निश्चय नयात्मक है। आत्मा कर्मबद्ध यह कथा व्यवहार नयात्मक है। आत्मा को शुद्ध स्वरूप से जानकर उसका ध्यान करने पर वह आत्मा कर्म से निर्वृत्त होकर शुद्ध होता है। आत्मा सिद्धस्वरूप में देखनेवाले स्वतः सिद्ध होते हैं।
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जिनेन्द्रदेव को पाषाण आदि में तदाकार स्थापित करके भक्ति करना भेद भक्ति है, यह पुण्य बंध का हेतु होने से स्वर्ग का कारण है और अपने शुद्धात्मा में उनको स्थापित करना अभेद भक्ति है - यह सिद्धपद के लिए युक्ति है। आत्मतत्त्व को प्राप्त करने की युक्ति को जानकर ध्यान के अभ्यास काल में भेद भक्ति का अवलम्बन करें। इसप्रकार आत्मा के ध्यान से मुक्ति की प्राप्ति अवश्य होगी।
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शलाका पुरुष भाग-१ से
स्फटिक की प्रतिमा को देखकर उसमें प्रतिबिम्बित स्वयं को देखकर ऐसा अनुभव करें कि “मैं भी ऐसा ही हूँ" ऐसा समझते हुए अपने आत्मा का ध्यान करें तो कारण परमात्मा सर्वांग में दिखता है। जिस समय आत्मा का दर्शन होता है, उससमय कर्म झरने लगते हैं एवं आत्मा में अनंतगुणों का विकास होने लगता है।
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धर्मध्यान व शुक्लध्यान में स्थूल रूप से तो मात्र इतना ही अन्तर है धर्मध्यान में आत्मा घड़े में रखे दूध के समान दिखता है और शुक्लध्यान में स्फटिक के बर्तन में रखे दूध के समान निर्मल दिखता है। शुक्ल ध्यान में आत्मा अत्यन्त निर्मल दिखता है। धर्मध्यान युवराज के समान है, जो पूर्ण स्वतंत्र नहीं है और शुक्लध्यान अधिराज के समान पूर्ण स्वतंत्र होता है।
हे भव्य! घोर तपश्चर्या होने मात्र से कुछ नहीं होता। अंतरंग में एक अन्तर्मुहूर्त तक परिणाम स्थिर होना चाहिए। इस चंचल चित्त को आत्मा में स्थिर करने की आवश्यकता है।
न्याय दो प्रकार का है - एक दुष्टों का निग्रह करना और दूसरा शिष्ट पुरुषों का संरक्षण करना, उनके भरण-पोषण की उचित व्यवस्था करना । यह राजा का सनातन धर्म है। अतः सत्ता संभालने वालों को इन बातों का ध्यान अवश्य रखना चाहिए।
पंचास्तिकाय, षट्का, सप्ततत्त्व एवं नवपदार्थों को भिन्न-भिन्न रूप से जानकर श्रद्धान करना एवं व्रतों का आचरण करना भेद रत्नत्रय या व्यवहार रत्नत्रय है तथा पर-पदार्थों की चिन्ता छोड़कर अपने आत्मा का ही श्रद्धान एवं उसी के स्वरूप का ज्ञान तथा मन को उसी में मग्न करना अभेद रत्नत्रय है । उसे ही निश्चय रत्नत्रय भी कहते हैं। ये दोनों रत्नत्रय ही यथार्थ मुक्ति का मार्ग है, अतः इसे स्थिर चित्त से समझना होगा।